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जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा बर्गणाऐं ही पृथक पृथक् मानो है। ऐसी अवस्थामें उनसे उत्पन्न हुए शब्दों में केवल पुरुषों द्वारा किये गये संकेतके आधीन ही पदार्थों की प्रकाशकता बनती हो ऐसा नहीं है। दिव्यध्वनिकी यह विशेषता है कि भाषा• वर्गणाके आधारसे उत्पन्न हुए शब्द वाच्यरूप जिस जिस अर्थके वाचक होते हैं उसी उसी अर्थका ये प्रतिपादन करते है। उनका प्रतिपादन पुरुषोंकी इच्छा पर अबलंबित नहीं है। यही कारण है कि आगममें जितने भी शब्दोंका प्रयोग हआ है बे आहेत प्रवचनके समान संतानकी अपेक्षा अनादिनिधन माने गये है। ऐसा नहीं है कि भगवान महावीरको दिव्यध्वनिमें 'जीव' शब्दका प्रयोग अन्य अर्थमें हुआ है और भगवान आदिनाथकी दिन्यध्वनि में उसका प्रयोग किसी दूसरे अर्थ में हुआ होगा। आगमको प्रमागता भी इसी पर निर्भर है, वक्ताओंकी इच्छाओं पर नहीं। इसीका नाम शब्दोंकी सहज योग्यता है। प्रामाणिक वक्ता इसी आधार पर उन उन शब्दोका प्रयोग करता है । भट्टाकलंकदेव तत्त्वार्थातिक अध्याय ५ सूत्र १ में लिखते है
धर्मादयः संज्ञाः सामयिक्यः ।१६। धर्मादयः संज्ञा सामयिक्यो रष्टश्याः। आहते हि प्रवचनेऽनादिनिधने अहंदादिभिः यथाकालमभिव्यक्तज्ञानदर्शनातिशयप्रकाशैरवघोतितार्थसारे रूढा एताः संज्ञा ज्ञयाः ।
धर्मादिक संज्ञाएँ सामयिक है ।१६॥ धर्मादिक संज्ञाएं सामयिक जाननी पाहिए । अर्हन्ताधिकके द्वारा उस उस कालमें प्रगट हए ज्ञान-दर्शनातिशयला प्रकाशके द्वारा जिसमें पदार्थसार प्रकाशित किया गया है ऐसे अनादिनिधन आईतप्रवचनमें ये धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल आदि संज्ञाएँ एढ़ जाननी चाहिए।
इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रभेयकमलमातंण्ड पू० ४२६ में बतलाया है
शब्दस्यानादिपरम्परातोऽर्थमात्रे प्रसिनसम्बन्धरवात, तेनागतसम्वन्धस्य घटादिशब्दस्य संकेतकरणात् ।
- शब्दका अनादि परम्परासे अर्थमात्र सम्बन्ध प्रसिद्ध है, इसलिए तत्तत् अर्थके साथ सम्बन्धको जानकर ही घटादि शब्द का प्रयोग किया जाता है।
दूसरे शब्दों में इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. ४३१ में बतलाया हैयतो हि शब्दोऽर्थववेतरस्थमावतया परीक्षितोऽर्थ न व्यभिचरति इति । यत्नपूर्वक अर्थवत्व और इतर स्वभावरूप से परीचित हा शब्द अर्थके प्रति व्यभिचरित नहीं होता।
अतएव प्रसिशंका ३ में एकान्तसे यह लिखना कि 'शब्द अपने अर्थको तो कहता नहीं, किस अर्थम उसका प्रयोग किया जाय यह वक्ताकी इच्छा पर अवलम्बित है, ठीक नहीं है, क्योंकि जैसा कि पूर्वोक्त प्रमाणोंसे स्पष्ट है, अनादि कालसे उस जरा शब्दको प्रयोग जो जो उसका वाच्य है उस उस अर्थमें होता आ रहा है। अतएव एक ओर तो शब्दमें ऐमो उपादान योग्यता होती है कि वह विवक्षित अर्थका ही प्रतिपादन करे और दूसरी ओर प्रामाणिक वक्ता भी कौन शब्द अनादिकालसे किस अर्थका प्रतिपादन करता आ रहा है इस बातको जानकर उसी अर्थ में उस शब्दका प्रयोग करता है। इस प्रकार अनादिकालसे शब्दोंमें जहाँ स्वाथित प्रमाणता चली आ रही वहां वह निमित्तोंकी अपेक्षा पराश्रित भी घटित की जाती है।
यद्यपि लोकमै सदनपने की अपेक्षा एक ही शब्द का प्रयोग सम्प्रदायमेवसे भिन्न-भिन्न अर्थमें होता हुया देखा जाता है, इसलिए अपर पक्षकी ओरसे यह आपत्ति उपस्थित की जा सकती है कि यदि शब्दोंका