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शंका ८ और उसका समाधान
प्रयोग केवल वक्ताओंको इच्छा पर अवलम्बित न होता तो सम्प्रदायभेदसे शब्दोंके अर्थमें अन्तर नहीं पड़ना चाहिए था ? समाधान यह है कि ऐसे स्थलों पर गलत बाब्दों के प्रयोग में उन जन सम्प्रदायवालोंके अज्ञानको प्रमुख कारण मानना चाहिए। अतएव पूर्वोक्त कथनसे पही फलित होता है कि लोकिक और आगमिक शब्दोंको सहज योग्यता पुरुषोंके द्वारा किये गये संकेतके आधीन न होकर अपने अपने उपादानके अनुसार होती है और इसी आधार पर लोक तथा बागममें प्रत्येक शब्द पदार्थका प्रकाशक स्वीकार किया गया है। हम पहले परीक्षामखका 'सहजयोग्यता' इत्यादि सूत्र उद्धत कर आये हैं सो उस द्वारा भी यही प्रसिद्ध किया गया है कि प्रत्येक शब्दम उपादानरूपसे जो सहज योग्यता होती है उसके अनुसार होनेवाले संकेतमें वक्ता निमित्त है और इस प्रकार प्रत्येक शब्द्ध अर्थप्रतिपत्तिका हेतु है। विविध भाषाओंके सम्मिलिल शब्दकोषों तया एक भाषाके एकार्थक नाना शब्दोंको या मानार्थक एक शाब्दको बतलानेवाले कोषों कता भी इसी में है। स्पष्ट है कि अपने उपादानकी अपेक्षा शब्दों में स्वाचित प्रमाणता स्वीकार करके ही उनमें निमित्तोंकी अपेक्षा पराश्रित प्रमाणता बागममें स्वीकार की गई है।
३. भागमप्रमाणोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार शब्दोंमें प्रामाणिकता किस अपेक्षा स्वाश्रित सिद्ध होती है और किस अपेक्षासे वह पराथित मानो गई है इसका सप्रमाण स्पष्टीकरण करने के बाद अपर पक्ष ने अपने पक्षके समर्थन के लिये आगमके जिन प्रमाणोंको उद्धृत किया है वे कहाँ किस अभिप्रायसे दिये गये हैं इसका स्पष्टीकरण किया जाता है
मीमांसादर्शन प्रत्येक बर्णको सर्वथा नित्य और व्यापक मानकर तथा साल्वादि व्यापारसे उनकी अभि. ब्यक्ति स्वीकार करके भी उन्हें कार्यरूपसे अनित्य स्वीकार नहीं करता। प्रमेयकमलमार्तण्ड पु० ४०१ में मोमांसादर्शनके इस मतका निरास करनेके अभिप्रायसे ही यह कहा गया है कि 'शब्द ऐसा नहीं कहते कि हमारा यह अर्थ है या नहीं है, किन्तु पुरुषोंके द्वारा हो दान्दोका अर्थ संकेल किया जाता है!' अतएव इस उद्धरणको उपस्थित कर एकान्तसे शब्दोंको पुरुषों द्वारा किये गये संकेतों के आधोन मानना ठीक नहीं है, अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा । फिर तो केवली जिनकी दिव्यध्वनि द्वारा जो अर्थ प्ररूपणा होती है उसे प्रत्येक श्रोता अपने अपने संकेत के अनुसार ही समझेगा, अतएव सत्रको एकार्थकी प्रतिपत्ति नहीं बन सकेगी। केवली जिनकी वाणो आया कि 'जीव है' इसे सुनकर एक श्रोता अपने द्वारा कल्पित संकेतके अनुसार समसेगा कि भगवानका उपदेश है कि 'जीव नहीं है।' दूसरा उसीको सुनकर अनि द्वारा कल्पित संकेतके अनुसार समसेगा कि भगवानका उपदेश है कि 'पुद्गल है।' और इस प्रकार वचनोंकी प्रमाणता सिद्ध न होनेसे आममकी प्रमाणता भी नहीं बनेगी। अतएव प्रकृनमें यही मानना उचित है कि शब्दका अनादि परमारासे अर्थमात्रमें वाच्यवाचकसम्बन्ध है, अतएव अर्थके साथ अवगत सम्बन्धवाले घटादि शब्दका संकेत किया जाता है। (पमेयकमलमार्तण्ड पृ० ४२९)
२.
मीमांसक दर्शन सर्वशकी सत्ता स्वीकार नहीं करता, फिर भी वेदार्थकी यथार्थता और उसका यथार्थ प्रतिपादन मान लेता है। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर सर्वज्ञको ससा स्त्रोकार कराने के अभिप्रायसे धवला पु०११० १९६ में निमित्तकी अपेक्षा यह कहा गया है कि 'वक्ताको प्रमाणतासे वचनोंमें प्रमाणता आतो है।'