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जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा इसलिए इस उल्लेख परसे दिव्यध्वनिको स्वाचित प्रमाणताका निषेध नहीं होता, क्योंकि कार्य-कारण सिद्धान्तके अनुसार जैसा उपादान होता है, निमिरासी उसके अरहते । सर्वनवादीको भी कहा जायगा कि 'सक्ताकी प्रमाणतासे वचनों में प्रमाणतासे आती है। पर इसे एकान्त मानना ठीक नहीं है, अतएय इस प्रमाणसे भी दिव्यध्वनिको स्वाश्रित प्रमाणता आगविरुद्ध घोषित नहीं की जा सकती।
जयधवला पुस्तक १ १० ८८ द्वारा पूर्व-पूर्व प्रमाणता स्थापित कर अन्तमें सर्वज्ञको प्रमाणता स्वीकार की गई है, क्योंकि अल्पज्ञ जनोंके लिए कौन शाब्द अपनी सहज योग्यता और तदनुसार अनादि परम्परासे आये हुए संकेत के अनुसार किस अर्थका प्रतिपादन करता है यह सर्वज्ञको प्रमाणता स्वीकार करनेसे ही ज्ञात हो सकता है। अतएव इस वचनसे भी दिव्यध्वनिकी स्वाश्रित प्रमाणताका निरास नहीं किया जा सकता।
कार्यके प्रति निमित्त और उगादान की समव्याप्ति होती है और इसे ही कार्यके प्रति बाह्म और आम्पन्तर उपाधिको समग्रता कहते हैं। अतएक जैसे उपादानको अपेक्षा यह कथन किया जाता है कि सत्यभाषावर्गणारूप उपादानके अभावमें प्रत्यभाषाकी उत्पत्ति नहीं हो सकती उसी प्रकार (१० पु.६०१०८) निमित्तकी अपेक्षा भी यह कहा जाता है कि 'रागादिका अभाव भी भगवान महावीरमें असत्य भाषणके अभावको प्रगट करता है, क्योंकि कारणके अभावमें कार्यके अस्तित्वका विरोध है।' अतएव इस वचनसे भी दिव्यध्वनिकी स्वाचित प्रमाणताका निरास नहीं किया जा सकता। यही बात धवल पु. ३ पृ० १२३ २६, जयधवल पुं० १ पृ० ४४, पृ० ७२ ५ ८२ तथा पु० ७ पृ० १२७ से भी समर्थित होती है ।
घवल पुस्तक ११० ३६८ में दिव्यध्वनिको जो ज्ञानका कार्य कहा है सो यह कथन भो निमित्तको अपेक्षा ही किया है, क्योंकि केवली जिनके सत्य और अनुभय वचनयोगके होने का नियम है, अतएव इस अपेक्षासे दिव्यध्वनि केवली जिन तथा केवलज्ञानका भी कार्य कहा जाता है इसमें कोई विरोध नहीं है। राजवातिकका प्रमाण उपस्थितकर इस विषयका विशेष विचार पूर्व में ही कर आये है । श्री गोम्मटसार जोन. काण्डका पूर्वोक्त प्रमाण भी उक्त तथ्यके समर्थनके लिए पर्याप्त है।
आगमर्म अर्थक के रूप में तीर्थकर जिन तथा ग्रन्था.कि रूपमै गणवरदेव और आरतीय आचार्योंको बतलाया है। सर्वार्थ सिद्धि पृ० १२३ में वक्ताके रूमें सर्वश तीर्थकर, सामान्य केवली तथा श्रुतकेवलो और आरातीय आचायोको बतलाया है। प्रतिशंका ३ में उक्त तथ्यको पुष्ट करनेवाले कुछ आगमप्रमाण भी दिये गये हैं । इसलिए इस विषय पर भी विशद प्रकाश डाल देना आवश्यक है।
(१) यो सम्यग्दृष्टि मोब दुःखित संसारी प्राणियोको देखकर उनके उद्धारकी भावनासे ओतप्रोत होते हैं उनके हो तीर्थकर जैसी सातिशय पुण्यप्रकृतिका बंध होता है। अनन्तर जब वे अपने अन्तिम भवमें गुणस्थानक्रमसे ४ घातिया कर्मोका नाशकर साक्षात वीतराग सर्वश पदको प्राप्त करते हैं तब उनके भव्य जीवोंको परम आबाद करनेवाली दिव्यध्वनिका प्रवर्तन होता है। यहाँ विचारणीय यह है कि कार्य