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शंका ९ और उसका समाधान धरजीने अनगारधर्मामत अ०१ में 'काद्या वस्तुनो भिचाः' इत्यादि श्लोक (१०२) इसी आशयसे लिखा है । नियम यह है कि जितने कार्य होते हैं उतने ही उनके अन्तरंग (उपादान) कारण और बाह्य कारण होते हैं। धरला पु०७ पृ०७० में इसका समर्थन करते हए अवार्य वीरसेन लिखते हैं
तदा कजजमेत्ताणि चेव कम्माणि वि अस्थि ति णिच्छओ कायग्यो।। इसलिए जितने कार्य हैं उतने ही उनके कम है ऐसा निश्चय करना चाहिए।
इसलिए यदि प्रवचनसारके उक्त उल्लेखमें बाद्य कारणको अपेक्षा विबेचन हुआ है तो इस परसे ऐसा मलत अभिप्राय नहीं फलित करना चाहिए कि 'अन्तरंग कारणके एक होने पर भी बाह्य कारणके भेदसे कार्यम भेद देखा जाता है, क्योंकि वस्तुतः बीज एक नहीं है। जिसने दाने हैं सब अपने अपने स्त्रचतुष्टयको लिये हुए पृथक् पृथक् है । इसलिए सिद्धान्त यह फलित होता है कि सबको वाह्याभ्यन्तर सामग्री पृयक्-पृथक होनेसे पृथक पृयव फलनिष्पन्न होता है । नियत आभ्यन्तर सामग्रीके साथ नियत वाद्यसामग्रीके हानेका योग है। इसलिए उनको निमित्तकर नियत फलकी ही उत्पत्ति होती है। धवला पु.६ १.१६४ के उक्त उल्लेखको और प्रवचनसार गाया २५५के उल्लेखको मिलाकर समझनेको आवश्यकता है। कारणपरम्परामें नियत निश्चय पक्ष के साथ नियत व्यवहार पक्षको स्वीकार करने पर ही अनेकान्तकी सिद्धि होती है, अन्यथ। कही।
बार पक्ष ने इस प्रसंगमें अन्य बहुतसी बातें लिखी है। उन सबसे अपर पक्षक सभी प्रपत्र भरे पड़े है। हरा लिए उन सबको हम विशेष चरचा नहीं करेंगे। किन्तु स्वयम्भस्तोत्र ६० का उल्लेख कर अपर पक्षने जा यह लिखा है कि कार्यको उत्पत्ति अन्तरंग बहिरंग निमित्ताधीन है ऐसा बस्तुस्वभाव है। यह अवश्य हो विचारणीय है । अपर पक्षके इस कथनको पड़कर ऐसा लगा कि वह अपने पक्षके समर्थन के अभिनिवेश, यहाँ तक कहने के लिए उद्यत हो गया। उस पक्ष को ऐसा लिखकर 'हम वस्तुस्वभावको पराधीन सिद्ध करने जा रहे हैं। इस बातका अणुमात्र भी भय न हुआ इसका समग्र जैन परम्पराको आश्चर्य होगा। प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वभाव है । इनकी एक सत्ता है। लक्षण, संज्ञा आदिके भेदसे ही इनमें भेद स्वीकार किया गया है। पर्यायका लक्षण है-तद्भाव । तत्त्वार्थसूत्र अ०५ में कहा भी है-'तभावः परिणामः' (गू० ४२ ) इसकी व्याख्या करते हुए असहस्री पृ० १२६ में लिखा है
तेन तेन प्रतिविशिष्टेन रूपेण भवनं हि परिणामः, सहक्रमभाविषवशेषपर्यायेषु तस्त्र भावादव्यापत्यसम्सवात् , तदभावे च द्रव्ये प्त
उस उस प्रतिविशिष्ट रूपसे होना ही परिणाम हैं, क्योंकि सहभादी और क्रमभात्री अशेष पर्यायोंमें वार्थात् गुणों और पर्यायों में उक्त लक्षणका सद्भाव होनेसे अव्याप्ति दोष नहीं आता। यदि उसका अभाव माना जायती द्रव्यम परिणामविशेष नहीं बन सकता।
इससे स्पष्ट है कि गणपर्यायवत्व यह द्रश्यका स्वरूप है। ऐमी अवस्थामें यदि कार्यको अपर पक्षके मतानुसार निमित्ताघोन स्वीकार कर लिया जाय तो वस्तुस्वभाव के परावीन हो जानेसे वस्तुको ही पराधीन स्वीकार करने का प्रसंग उपस्थित होता है जो अनुभव, तर्क और आगम तीनों के विरुद्ध है। स्पष्ट है कि कोई भी कार्य निमित्ताधीन नहीं होता। निमित्तकी निमितता विवके शाश्वत नियमानसार प्रत्येक समयमै विशिष्ट स्वभावय वन वस्तु के साथ बाह्य व्याप्तिमात्र है। कार्यकारणपरमाराम या अन्यत्र निमित्तको स्वीकार करनेका.इतना ही तात्पर्य है। यह कार्यकी सापेक्ष रूपसे सिद्धि करता है, इसलिए उसमें कर्ता आदिका