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________________ जयपुर (खानिया ) सत्वचर्चा अपर पक्षने घवला १०६ १० १५४ के उल्लेख के सन्दर्भमें उपादान कारणके अनसार स्थितिबन्ध में विशेषताको स्वीकार कर लिया यह उचित ही किया है, क्योंकि सर्वत्र सभी कार्य उपादानके अनुसार होते हैं यह परमार्थसत् कथन है । इस उल्लेख में 'पबडिविसेसादी' पदका यही आशय है। इस विशेषताका उल्लेख आचार्य वीरसेनमे घवला और जयधवला दोनोंमें शताधिक वार किया है। कहीं 'सहावदो' लिखा है । इसके लिए धवला पु० ४ पृ०३४३ ३ ४६८, पु० ५ पृ० ८८ पु० ६ पु० १४८ व ३१७, पु०१० पृ० २२६१ २४०, पु० ११ १० २४६, म ३०६, पु० १२ पृ. ३७, जयपचला पु०७पृ०७४,७५, ८३, ८४, ६५, ६६, १११, २४०, २४२, व २७४ आदि पृष्ठ द्रष्टव्य है । “पयजिविसमादो' इसके लिए धवला पु०६ पृ० १७८, १६३, १६४, पु०१२ पृ०४६ तथा जयधवला पु० ७ पु० ७५, ८५,६०,६४, ९५, ६७, १८, १६, १११,११५, ११६,११७, १२१,१३१,१३२ आदि पृष्ट अवलोकनीय है। इन सब उल्लेखों द्वारा उपादानको महत्ता ही घोषित को गई है। ऐसी अवस्थामें धवला गु० ६ पृ० १६४ के सस्त उल्लेख में आये हुए 'एग्रसेण' पदका अपर पक्षने जो आशय लिया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि इस पद द्वारा दाशार्थ सापेक्षपनको कहनेवाले पकधारपक्षके एकान्त का निपेचकर परनिरपेक्ष निश्चयपश्न का समर्थन किया गया है । कारण कि सभी कार्य निश्चयसे परनिरपेक्ष ही होते हैं । व्यवहारसे ही उन्हें सहेतुक स्वीकार किया गया है, क्योंकि निश्चयनय मात्र वस्तुस्वरूपका उद्धाटन करता है, इसलिए यह परनिरक्षरुपसेही मान्यरूपके विरूलाने में प्रवृत्त होता है। परन्त व्यवहारलयकी यह स्थिति नहीं है। कारण कि सापेमभावसे वस्तुकी सिद्धि करना उसका प्रयोजन है। उदाहरणार्थ भव्यों और अभव्योंका स्त्ररूप परनिरपेश स्वतःसिद्ध है। माल इनका मनहार परस्पर सापेक्ष होता है। इसीप्रकार प्रकृतमें जान लेना चाहिए । यही कारण है कि आचार्य वीरसेन ने धवला पु० ७ १० ११७ में सभी कार्य बाह्याचं कारण निरपेक्ष होते हैं। इस तथ्यको स्वीकार करते हुए लिखा है पात्यकारणणिरवेस्खो वत्थुपरिणामो। इससे स्पष्ट है कि प्रकृतमें अगर पक्षने 'उक्त उल्लेखमें आये हुए 'एयंतेण' पदका जो आशय लिया है वह ठीक नहीं है। इसी प्रसंगमें अपर पक्षका कहना है कि 'यद्यपि कार्य उपादानके सदृश होता है तथापि ऐसा भी नहीं है कि उमपर बाझ कारणोंका प्रभाव न पड़ता हो ।' आदि। किन्तु अपर पक्षका ऐसा लिखना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि जिसे अपर पक्ष 'प्रभाव पड़ना' कहता है वह क्या कोई वस्तु है या कयनमात्र है? यदि वस्तु है तो क्या आगमके विरुद्ध यह स्वीकार किया जाय कि एक वस्तु के गुणधर्मका दूसरी वस्तुमें संक्रमण होता है । यदि नहीं तो वह कथनमात्र है इसके सिवाय उसे और क्या कहा जा सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । यही कारण है कि 'एक द्रव्ध दूसरे द्रव्यके कार्यको करता है' इसे आगममें असद्भूतब्यबहारनयका विषय बतलाया गया है। अपर पक्षने यहां पर बीज और भूमिका उदाहरण उपस्थित कर यह सिद्ध करना चाहा है कि एक ही बीज अलग अलग भूमिके कारण अलग अलग फलको उत्पन्न करता है और इसकी पुष्टि प्रवचनसार गाथा २५५ का उल्लेख किया है। समाधान यह है कि अन्तरंगको सिद्धि करना यही तो व्यवहार हेतुका मुख्य प्रयोजन है। वह स्वयं अन्तरंगरूप नहीं हो जाता, किन्तु अन्तरंगको सिद्धि करता है। पण्डितप्रवर पाशा
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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