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________________ ६०० जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा व्यवहार किया जाता है। यदि बाह्य सामग्री कार्यका वास्तबिक कर्ता हो तो वह कार्यको 'स्व' हो जायगी और ऐसी अवस्थामे बह व्यवहार कथन न कहला. साविसपनेको मेगा 'माया हो माना जायगा ! असएव 'कार्यको उत्पत्ति अन्तरंग-बहिरंग निमित्ताधीन है ऐसा वस्तूस्वभाष है यह लिखना अपर पक्षके लिए योग्य नहीं है, हमने प्रश्न ११ के प्रथम उत्तरमें तथा प्रश्न १ के द्वितीय उत्तरमें बाह्य सामग्रीको ध्यानमें रख. कर जो भी लिखा है वह व्यवहारदष्टिको ध्यान में रखकर ही लिखा है। अपर पक्ष निश्चय व्यवहारको भेदक रेखाको यदि स्वीकार कर लेता है तो विश्वास है कि जिन तथ्योंका हम अपने उत्तरों में निर्देश कर रहे हैं उन्हें स्वीकार करने में उस पक्षको किसी प्रकारको हिचकिचाहट नहीं होगी। हमने बदला पु०१२ पू०३६ का उद्धरण उपस्थित कर अन्तरंग कारणको कार्यके प्रति विशेषता ख्यापित की थी उसे अपर पक्षने किसी हद तक अपने विशेष विवरण के साथ मान्यता प्रदान की इसकी जहाँ प्रसन्नता है वहां यह संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि अन्तरंग कारण प्रत्येक वस्तुका स्वरूप है अतः वह यथार्थ होने से उसके आधारपर बनाया गया नियम सर्वत्र एक समान लागू होता है। अपर पक्षने इसी पुस्तकसम्बन्धी पृ०४५३, १०३८. और ए०१२० के जो सल्लेख उपस्थित किये हैं उनसे भी उक्त कचनका ही समर्थन होता है। विचारके लिए हम सर्व प्रथम अपर पक्ष के निर्देशानुसार पु. ४५३ का उल्लेख लेते हैं । जो जीव शानायरणीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है उसके यदि अप्रयुकर्मका बन्ध हो तो कसा होता है इसी तथ्यका विचार इस प्रकरणमें चल रहा है । अन्तिम दो शंका-समाधान इस प्रकार है शंका---ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट स्थिसिमायोग्य परिणामों के द्वारा आयुकर्मका चतुःस्थानपतित बन्ध कैसे होता है? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणामोंमें भी अन्तमुद्दतमात्र आयुकी स्थिति के बन्धके योग्य परिणाम सम्भष हैं। शंका--एक परिणाम भिन्न कार्योंको करनेवाला कैसा होता है ? समाधान-सहकारी कारणों के सम्बन्धभेदसे उसके मित्र कार्योंके करनेमें कोई विरोध नहीं है। यह आगमवचन है। अब यहाँ इस बातका विचार करना है कि वे सहकारी कारण कौन है जिनके सम्बन्धभेदसे एक परिणामको भिन्न कार्यों का करनेवाला कहा गया है? जहाँ तक स्वामीका सवाल है, जो एक जीव (मनुष्य या तिर्यच) ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थिति बांध रहा है वही आयुकर्मकी चतु:स्थानातित स्थिति बांध रहा है, इसलिए स्वामिभेद तो है नहीं । परिणामभेद भी नहीं है, क्योंकि एक ही परिणामसे दोनोंकी जक्त स्थितिका बन्ध हो रहा है। इसी प्रकार काल और क्षेत्रका भी भेद नहीं है, क्योंकि जिस काल या क्षेत्रमें विवक्षित जीव शानावरणको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर रहा है उसी काल था क्षेत्रमे वह आयुकर्मको भी चतु:स्यानपतित स्थितिका बन्ध कर रहा है । इस प्रकार जो बाह्य सामग्री ज्ञानावरणके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके लिए प्राप्त है वही बाह्य सामग्रो आयुकर्मके चतुःस्थानपतित स्थितिबन्धके लिए भी प्राप्त है। फिर ऐसी कौनसी सहकारी सामग्री है जिसके सम्बन्धभेदसे एक परिणाम भिन्न कायोंको करनेवाला प्रकृतमें स्वीकार किया गया है? क्या कारण है कि उसी सामग्रीके सद्भावमें जानावरणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो और आयुकर्मका चतुःस्थानपतित यथायोग्य स्पितिबन्ध हो? अर्थात् उत्कृष्ट विभागके प्रथम समय में आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो, और बादमें आगममें बतलाई हुई विधिके अनुसार असंख्यात भागहानि आदिको लिए हए स्थितिबन्ध हो। इतना ही क्यों? कोई कर्मवर्गणा ज्ञानावरणादिरूप परि
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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