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पुरानिया) स्थ
और सर्वश के कथनमें विवक्षाभेद ही है, अन्य कोई भेद नहीं । अतएव प्रकृत में आत्मज्ञ और सर्वज्ञ इन दोनोंका एक ही तात्पर्य है ऐसा यहाँ समझना चाहिए ।
४. किसी भी वस्तु कोई भी धर्म परसापेक्ष नहीं होता । हाँ धर्म धर्मी अधिक व्यवहार अवश्य ही परस्परसापेक्ष होता है। यहाँ पर अपर पक्षने असद्भूत व्यवहारका लक्षण आछापपद्धतिसे दिया है। उसका यादव और उसी बालापपद्धतिके 'अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्य इत्यादि कममका आशय एक ही है। आगे समयसार गा० २७२ की आरमख्यादि टीका आधारसे निश्चयन और व्यवहारनयका लक्षण दिया है। किन्तु प्रकृत इन सबके आधार परचा करने का कोई प्रयोजन नहीं है। अपरगने जा०
१५० २३ के आधारसे यह सिद्ध करना चाहा है कि 'केवलज्ञान बात्मा और
पदार्थकी अपेक्षा रखता है ।'
समाधान यह है कि ज्ञान के कारण क्षेत्र ज्ञान के कारण है ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे अभेद विवक्षा में निश्चयगय से और भेद विवक्षा में उपचारित राभूत व्यवहारनयसे जीव और ज्ञानमें परस्पर कार्य-कारण भाव बन जाता है वैसे अन्यत्र ज्ञेय और ज्ञानमें उपचरित असभूत क्षयवहारनयसे भी कार्यकारणभाव नहीं बनता। इन दोनोंपर यदि कोई व्यवहार छागू पड़ता है तो शाशक व्यवहार हो लागू पड़ता है, अतएव ज० १५० २३ के उप उद्धरणका यह अर्थ करना चाहिए कि केवलज्ञान आत्मसहाय होकर उत्पन्न होता है और परवहाय (परसापेक्ष) होकर उसमें ज्ञापक व्यवहार होता है। इसके सिवा इसका अन्य अर्थ फलित करना धागमानुकूल नहीं है। पर्यामाधिकनयसे देखा जाय तो केवलज्ञान स्वकालमें स्वयं उत्पन्न होता है, वह अन्य किसीको अपेक्षा नहीं रखता । हाँ, आत्मा और केवलज्ञानमें धर्म-धर्मी व्यवहार अवश्य ही परस्पर सापेक्ष होता है। इस अपेक्षा उक्त उद्धरणका यह अर्थ होगा कि केवलज्ञानमें धर्मव्यवहार बात्मसापेक्ष होता है। आचार्य संक्षेप में वस्तुका निर्देश करते है । उसका आशय क्या यह नयविवक्षासे ही समझा जा सकता है।
अपर पाने लिखा है कि इस तरह चूंकि सर्वज्ञता पदार्थविषयताको अपेक्षा है, अतः वह पराचित होने से व्यवहार से हैं।' आदि।
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समाधान यह है कि सर्वज्ञता में पदार्थविषयताको अपेक्षा नहीं होती । सर्वज्ञता और विषयभूत पदार्थों मे ज्ञाप्य ज्ञापक व्यवहार अवश्य किया जाता है। प्रवचनसार गाया २३ में 'पारणं णेयपमण मुहिं' इस वचनद्वारा प्रत्येक समय केवलज्ञान परिणाम किसरूप होता है इसका स्वरूपनिर्देश किया गया है परिणाम होने में शेयको अपेक्षा बनी रहती है यह नहीं कहा गया है। जैसे प्रत्येक समय में ज्ञेय स्वयं हूँ । यह केवलज्ञान के कारण वैसा नहीं है। उसी प्रकार प्रत्येक समय में केवलज्ञानपरिणाम भी स्वयं है। वह ज्ञ यके कारण वैसा नहीं है। जब कि अपर पक्ष तत्वार्थवार्तिक १ । २६ के आधारसे केवलज्ञानमें अनन्तानन्त लोकालोकको जाननेको शक्ति विश्व स्वीकार करली है तो परिणामी से केवलज्ञान परिणाम अभिन होनेके कारण जिस कालमें आत्मा जिसरूप परिणमता है यह तन्मय होकर हो अनुसार सर्वज्ञता आत्मामें निश्चयसे है अर्थात् उस कालमें वह उसका स्वरूप है ऐसा मान लेने में अपर पक्ष क्यों हिचकिचाता है। अपर पक्ष सर्वज्ञताको एक ओर तो स्वरूप भी मानता है और दूसरों ओर उसे व्यवहारनवसे बतलाता है इसे क्या कहा जाय ? हम तो इसे उसकी विडम्बना ही कह सकते हैं।
परिणमता है इस नियम
५. समयसार परिशिष्ट ४८ तो नहीं ४७ शक्तियों का निर्देश अवश्य है उनमें अपर पहने अकार्य
कारण
और अवाक्तिको परापेक्ष चलाया है। इसी प्रकार सर्वशत्य और सर्वशत्व शक्तियोंको
उस केवलज्ञान