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शंका ७ और उसका समाधान
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भी परापेक्ष लिखा है। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस शक्तिका जैसा परिणाम (स्वरूप) होता है उसका हो वहाँ निर्देश किया गया है। किसीकी सिद्धिमें परकी अपेक्षा लगाना अन्य बात है । यह व्यवहार है जो यथार्थका ज्ञान करा देता है पर कितीका स्वरूप पपेक्ष नहीं हुआ करता इसका विशेष विचार पहले ही कर पाये है।
समयसार गाया ३५६ और १६० आदि को निश्चयनय और उपहारनय कथन निर्देश है उसका इतना ही है कि आरमा निश्वयसे झायक है। प्रत्येक समय उसमें जो लोकालोको जाननेदेखनेरूप परिणाम होता है वह स्वभावसे होता है, परकी अपेक्षा करके नहीं होता। जैसे भिती है, इसलिए सेटिका सदरूप परिणम रही है ऐसा नहीं है, किन्तु वह स्वभावसे हो प्रत्येक समय में मिलोकी अपेक्षा किये बिना सफेदरूप परिणमती रहती है उसी प्रकार समस्त है, इसलिए लोकको जानने-देखनेरूप ज्ञान दर्शन परिणाम होता है ऐसा नहीं है, किन्तु आत्मा प्रत्येक समय में समस्त ज्ञेयोंकी अपेक्षा किये बिना स्वभावसे हो सकल ज्ञवको जानने-देखनेरूप परिणमता है। यह निश्चयनयका है। फिर भी ज्ञाप्य शापक व्यवहारको ध्यान में रखकर परसापेक्ष कथन किया जाता है। इसलिए व्यवहारनयसे सर्वज्ञता है ऐसा एकान्त न करके आत्मता और सर्वज्ञता ये कथन के दो पहलू है ऐसा समझना चाहिए। समयारी उक्त गाथाओंका तथा उसकी टीकाका यही आशय है।
जोपादिको जानने स्वयं ज्ञानपरिणाम हुआ उसीको आचार्य अमृतचन्द्र परादिको व्यवहार जानना कहा है। वह घटादिको जाननेरूप ज्ञानपरिणाम स्वभावसे हुआ है, घटादिके कारण नहीं हुआ है । फिर भी शाप्य शाकव्यवहार परस्पर सापेक्ष होता है, को घटादिजानना कहते हैं।
व्यवहारनय और उसका क्या है इसका भेदों सहित निर्देश आलापद्धति और नयचक्रादिसंग्रह आदि ग्रन्थोंमें सुष्ट किया है, उससे आगनमें उसे रूपमें स्वीकार किया गया है और उसमें
क्या भेद है यह स्पष्ट हो जायगा ।
६. अपर पक्षने परमात्मप्रकाश टीकाका जो आय लिया है उस सम्बन्ध में इतना लिखना ही पर्याप्त है कि सर्वज्ञता केवलज्ञानका परनिल स्वरूप है यह योगे नहीं आई है प्रकार अपने आत्माको तन्मय होकर जानते है जब प्रकार पर को तन्मय
हमारे जिन जिन होकर नहीं जानते इस
परका जानना आगया। वपर पक्ष एक वर विषय बताता है, पौर
क्या यह अर्थ हुआ कि केवलीका तन्मय होकर जो ज्ञानपरिणाम हुआ उसमें अतएव सर्वज्ञताको यदि हम आत्मज्ञतासे भिन्न नहीं कहते तो चार्थ ही कहते हैं। णामको दो कहता है। एक ज्ञानपरिणामको आत्म कहकर उसे निश्चयन दूसरेको सवंश कहकर उसे व्यवहारका विषय बतलाता है इसका हमें आश्चर्य है, क्योंकि वे दो नहीं है, विवाद कथन यो हैं इसे अपर पक्ष स्वीकार ही नहीं करना चाहता और व्यवहारको परमार्थ सिद्ध करनेके फेर में पड़कर सर्वज्ञताको ही एकान्तले व्यवहारनयका विषय बना देना चाहता है। किन्तु किसी भी वस्तु में कोई भी धर्म परसापेक्ष नहीं होता। अतएव परमात्मप्रकाशकी टीका के आधारसे हम जो कुछ लिख आये हैं वह यचार्थ लिख आये है । उसमें ज्ञानस्वरूपका निर्देश करनेके साथ ज्ञानपरिणाम परसे न उत्पन्न होकर भी उसमें परके जाननेरूप व्यवहार कैसे होता है यह स्पष्ट किया गया है ।
७. अपर पक्षने सामायिकपाठ और प्रवचनसार गाया २०० की टोकाके आधार से हमारे कथनका 'सम्भवतः ' पद लिखकर जो श्राशय फलित करना चाहा है वह फलित न किया जाता तो ठोक होता, क्योंकि