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शंका ७ और उसका समाधान
५१३ धर्म यथार्थमें है। सर्वज्ञता यथार्थ कैसे हैं और सर्वज्ञतामें आत्मज्ञता तथा आत्मज्ञतामें सर्वशता कैसे अन्तनिहित है इसका स्पष्टीकरण हुम पिछले उत्तरों में विशेषकामे कर आगे हैं ।
___ अपर पक्षने लिखा है कि 'जब सर्वज्ञता शक्ति आत्माकी है तब उसका आत्मा कथन करना आरोपित कैसे कहला सकता है ? उस शक्ति का स्वरूप हो जब परको जानना है सब पर की अपेक्षा तो उसमें आवेगो हो । परको जानने का नाम ही परझता है।'
समाधान यह है कि सर्वज्ञत्व शक्ति आत्माकी है। उसे आरोपित न तो हमने लिखा ही है और न वह आरोपित है ही। उस शक्तिका स्वरूप केवल परको जाननेका न होकर सबको जानने का है। यदि जिनदेव उसद्वारा केवल गरको जाने सो उस शक्तिमें परज्ञता बने । किन्तु उसद्वारा वे सबको जानते हैं, इसलिए वह सर्वशतारूप ही सिद्ध होती है।
अपर पक्षका कहना है कि यहापर हमारा प्रश्न सर्वज्ञत्ववितको अपेक्षासे नहीं है, क्योंकि वह तो निगोदिया जीय में भी है। किन्तु सर्थशवारूप उस परिणतिसे है, वह परिणति सर्व पर दस्तुके आश्रयसे ही मानी जा सकती है । अतएव पर (सर्व ज्ञय) आधित होनेसे व्यवहारनयका विषय हो जाता है ।' आदि ।
___ समाधान यह है कि निगोदिया आदि सब जीवों में जो सर्वज्ञत्व शक्ति है उसकी परिणति ही तो सर्वज्ञता है । यह परिणति स्व-परप्रत्यय न होकर स्वप्रत्यय होती है, जो अाने परिणामस्वभावके कारण प्रत्येक समयमै त्रिकालवी और त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थोंको युगपत जाननेम समध है। अतएव सर्व पर वस्तुके आषयसे इसे स्वीकार करना तो आगमविरुद्ध है हो। किसी भी ज्ञान परिणतिको शेयके आश्रयसे मानना आगमविरुद्ध है। परीक्षामुख अ० २ ० ६ में कहा भी है-अर्थ और आलोक ज्ञानको उत्पत्तिके कारण नहीं है, क्योंकि वे परिच्छेद्य है । जैसे कि अन्धकार । अतएव हम जो यह भाव व्यक्त कर बाये है कि 'आत्माको जायक कहने से उसमें ज्ञेयकी ध्वनि आ जाती है, इसलिए उसपर ज्ञेयको विवक्षा लाग पड़ जाती है यही उपचार है वह यथार्थ है। यहाँ इतना और समझना चाहिए कि सर्वज्ञताका विषम स्व-पर ज्ञे यरूप समस्त द्वन्यजात है, केवल पर पदार्थ नहीं । अपर पक्ष यदि यह जानने कि जिसे निश्चय दृष्टि में (स्वल्परमणताकी दृष्टि में) आत्मज्ञ कहा है उसे ही परसापेक्ष विवक्षामें सर्वज्ञ कहा है तो नियमसारको उक्त गाथाका का तात्पर्य है यह हुदयंगम करने में आसानी जाय ।
समयसारमें पर्मायाथिकमयके विषयको गौणकर विवेचन किया गया है, क्योंकि वहाँ रागादिभावोंसे भिन्न आत्माको प्रतीति कराना मुख्य है । इसलिए ही वहाँ गाथा १६ में रागादिको व्यवहारनयसे जीवका मत. लाया गया है, किन्तु जब रागादिरूप परिणमना यह जोत्रका ही अपराध है, कमका नहीं यह शान कराना मुख्य हुआ तब इसका ज्ञान करानेके लिए कर्ता-कर्म अधिकारमें निश्चयसे उनका कर्ता जीवको ही कहा गया है। 'गा.१०२ । सर्वत्र विरक्षा देखनी चाहिए।
अतएव अपर पक्षने समयसार गाया ५६ को ध्यान में रखकर जो यह लिखा है कि 'आपके सिद्धान्तानुसार यदि विभाव परिणमनको इस शक्तिको अपेक्षासे देखा जाय तो यह भी स्वाथित होने से निश्चयनयका विषय बन जावगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि समयसार गाथा ५६ में रागादि विभावको जीवके हैं ऐसा ज्यवहारमयत कहा है।' सो उस पक्षका ऐसा लिखना ठीक नहीं है।
३-६. तीसरे मुद्दे में पिछले कथनकी ही दुहराया गया है । अगर पक्ष आत्मज्ञता और सर्वज्ञता ऐसे दो धर्म मानता है। किन्तु इस सम्बन्धमें विशद विवेचन पहले ही कर आये है, उससे स्पष्ट हो जायगा कि आत्मज्ञ
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