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जयपुर ( स्वानिया ) तत्त्वचर्चा मागे आपने जो यह लिखा है कि इस प्रकारको निमित्तकारणता व्यवहारनयसे ही स्वीकार की जा सकती है निश्चयनयसे नहीं'-सो इस लेखमे सहमति प्रगट करते हुए भी आपने हमारा कहना है कि व्यवहारनयसे निमितकारणताका जो आप 'कल्पनारोपित निमित्तकारणता' अर्थ कर लेते हैं यह अर्थ हमरे और आपके मध्य विवादका विषय बन जाता है ।
आमें आपने अपने मतको पुष्टि में तत्त्वार्थ लोकतात्तिकका निम्नलिखित कथन भी उद्धृत किया है
कथमपि तनिश्चयनयात् सर्वस्य विस्त्रसोत्पादध्ययधोग्य व्यवस्थितः । व्यवहारनचादेवोपादादीनां सहतकत्व प्रतीते"।
-अ०५ सू०१६ पृ.४१० इसका जो अर्थ आपने किया है वह निम्न प्रकार है
'किसी प्रकार सब द्रव्योंके उत्पाद, व्यय और प्रौव्यको व्यवस्था निश्ननयसे विम्र सा है, व्यवहारनयसे हो उत्पादिक सहेतुक प्रतित होत है।'
___ यद्यपि तत्वार्थश्लोकवातिकके उक्त कथनसे भी हम पूर्णतः महमत हैं, परन्तु इसमें 'निश्चय' शब्दका अर्थ 'वास्तविक' और 'व्यवहार' शब्दका अर्थ उपचार ( कल्पनारोपित) करके आप जब उक्त कथनके आधार पर निमित्तको अकिचिस्कर सिद्ध करना चाहते है तो आपके इस अभिप्रायसे हम कदापि सहमत नहीं हो सकते हैं। कारण कि तत्त्वार्थश्लोकवातिकके उक्त कथनमें भी पठित 'व्यवहार' शब्दका अर्थ 'कल्पनारोपित' करना निराधार है। आगे इसी विषय पर विचार किया जा रहा है।
व्यवहार और निश्चय ये दोनों ही पृथक्-पृथक स्थल पर प्रकरणानुसार परस्पर सापेक्ष विविध अर्थ युगलोंके बोधक शब्द है, इसलिये भिन्न-भिन्न स्थलतरयुक्त किये गये इन शब्दांस प्रकरणके अनुसार परम्पर सापेक्ष भिन्न-भिन्न अर्थ युगल ही ग्रहण करना चाहिये । पवहार और निश्चय इन दोनों शब्दोंके विविध अर्थयुगलों और प्रत्येक अर्धयुगलकी परस्पर सापेक्षताके विषयमें हमारा दृष्टिकोण आपको प्रश्न नं०१७ की प्रतिशका ३ में देखनेको मिलेगा। अतः कृपया वहाँ देखनेका कष्ट कीजियेगा।
व्यवहारनय और निश्चयनयके विषयमें हमारा कहना यह है कि ये बोनों ही नय बचनात्मक और शानात्मक दोनों प्रकारके हा करते हैं। उनमें से निश्चयरूप अर्थसापेक्ष व्यवहाररूप अर्थ का प्रतिपादक वचन व्यवहारमय और व्यवहाररूप अर्थसापेच निश्चयरूप अर्थका प्रतिपादक वचन निश्चयनय कहलाने योग्य है । इसी प्रकार निश्चयरूप अर्थसापेक्ष घ्यवहारका अर्थका ज्ञापक ज्ञान व्यवहारनय और व्यवहाररूप अचसापेक्ष निश्चयरूप अर्थका ज्ञापक ज्ञान निश्चयनय कहलाने योग्य है। पहले दोनों वचनमयके और दूसरे दोनों ज्ञाननयके भेद जानना चाहिये ।
व्यवहाररूर अर्थ और निश्चयरूप अर्थ ये दोनों ही अपने आपमें पूर्ण अर्थ नहीं है । यदि इन दोनों में से प्रत्येकको पुर्ण अर्थ मान लिया जायगा तो इन दोनोंकी परस्पर सापेलता ही भंग हो जायगो, इसलिये ये दोनों ही पदार्थके अंश ही सिद्ध होते है, क्योंकि नय विकलादेश होनेसे वस्तुके एक अंशको ही ग्रहण करता है। इस प्रकार इनको विषय करनेवाले वचनों और शानोंको भी क्रमशः परार्थप्रमाणका भूत और स्वार्थप्रमाणरूप धुप्तके भेदरूपसे जैन आमममें स्वीकार किया गया है। अर्थात् जैनागम में पदार्थके परस्परसापेक्ष अंशभूत व्यवहार और निश्वयके प्रतिपादक वचनोंको परार्थ प्रमाणरूप श्रुतमें और पदार्थके परस्पर सापेक्ष अशभूत व्यवहार और निश्चयके ज्ञापक शानोंको स्वार्थ प्रमाणरूप श्रुतमें अन्तर्भूत किया गया है।