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शंका ६ और उसका समाधान
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इस कथन के आधार पर कार्यकारणभाव के विषय में आपका यह सिद्धान्त फलित होता है कि कार्यों त्यत्तिक्षणसे अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय विशिष्ट वस्तु हो कार्यके प्रति उपादान होती है और जो वस्तु इस तरह उपादान बन जाती है उससे नियमसे कार्य उत्पन्न हो जाता है। इसी प्रकार उस समय जो अनुकूल वस्तुएँ वहाँ पर हाजिर रहती है उनमें निमितताका व्यवहार तो होता है, परन्तु कार्यकी उत्पत्ति सहायक वस्तुका अभाव अथवा कार्योत्पत्ति में बाधा पहुँचानेवाली नहीं पर गाय जाना असंभव हो समझना चाहिये ।
वस्तु
आपके इरा मन्तब्य के विषय में सर्व प्रथम तो हम यही सिद्ध करना चाहते हैं कि आपके द्वारा कार्यकारणभावस्था के रूप में ऊपर जो अपना अभिप्राय प्रगट किया गया है उसका समर्थन राजबार्तिक के उपर्युक्त कथनसे नहीं होता है, क्योंकि राजवार्तिक के उल्लिखित कथनसे तो केवल इतनी हो बात सिद्ध होती है कि यदि मिट्टी में घटरूपसे परिणमन करने की योग्यता हो तो दण्ड, चक्र और कुम्हारका पुरुषार्थ आदि घट निर्माण में मिट्टी के वास्तविक रूपमें सहायकमात्र हो सकते हैं और यदि मट्टीने घटरूपसं परिणत होनेकी योग्यता विद्यमान न हो तो निश्चित है कि दण्ड, चक्र और कुम्हारका पुरुषार्थ आदि उस मिट्टीको घट नहीं बना सकते है अर्थात् उक्त दण्ड, चक्र आदि मिट्टी में घट निर्माणकी योग्यताको कदापि उत्पन्न नहीं कर सकते है । दूसरी बात राजवार्तिक के उक्त कथनसे यह सिद्ध होती है कि दण्डादि स्वयं कभी घटरूप परिणत नहीं होते हैं । इतना अवश्य है कि यदि दण्डादि अनुकूल निमित्त सामग्रीका सहयोग मिल जावे तो मिट्टी ही उनकी सहायता से घटरूप परिणत होती है | इसका भी आशय यह है कि यदि मिट्टी के लिये उसके घट रूप परिणमन में सहायता प्राप्त नहीं होगी तो मिट्टी अपने अन्दर योग्यता रखते हुए भी कदापि घटरूप परिणत नहीं हो सकेगो ।
इस प्रकार राजवार्तिक के उपर्युक्त कथनसे यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकाला जा सकता है कि मिट्टी जब घटक निष्पन्न अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायरो अध्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायमें पहुँच जाती है तभी वह घटका उपादान बनती है और न यह निष्कर्ष हो निकाला जा सकता है कि उससे पहले जब तक वह खानमें पड़ो रहती है या कुम्हार उसे अपने घरपर ले आता है अथवा वही मिट्टी जब घट-निर्माण अनुकूल उत्तरोत्तर पिण्ड, स्थास, कोश और कुशूल आदि अवस्था प्रोंको भी प्राप्त होती जाती है तो इन सब अवस्थाओं में से किसी
इसी प्रकार राजवातिकके उक्त कथनो
भी अवस्था में वह मिट्टी घटका उपादान नहीं मानी जा सकती हैं। वह भो निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि मिट्टी जब की निष्पन्न अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायसे अस्वति पूर्व क्षणवर्ती पर्याय पहुँच जाती है तो उससे घटोत्पत्तिरूप कार्य नियमसे हो हो जाता है 1
यदि कहा जाय कि राजवातिके उक्त कथन 'यथा मृदः स्वयमन्तर्घट वन परिणामाभिमुख्ये ' यहाँनेर 'आभिमुख्य' शब्द पड़ा हुआ है तथा आगे इस कथन में 'शर्करादिप्रचिती मृत्पिण्डः स्वयमन्तर्घट - भवन परिणामनिरुत्सुकश्वान् यहाँ पर 'निरुसुकत्व' शब्द पड़ा हुआ है। ये दोनों ही शब्द इस बातका संकेत दे रहे हैं कि 'वस्तुको जिस पर्यायके अनन्तर कार्य नियमसे निष्पन्न हो जावे उसे ही उपादान कारण कहना चाहिये और इस तरह ऐसा उपादानकारण घटकी सम्पन्न अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायके अव्यवहित
ऐसी पर्याय है जिनके अनन्तर समयमें
पूर्व क्षणवर्ती पर्याय हो हो सकती है, क्योंकि यह पर्याय ही कार्योत्पत्ति होने में न तो कोई कमी रह जायगी और न किसी प्रकारकी बाधा खड़ी होने की संभावना भी वहाँ रह जायगी, अतः उस अवसरपर कार्योत्पसि नियमसे होगी। इसके अतिरिक्त मिट्टीको कोई