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________________ ३९८ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा पूर्वक मिट्टी में होता हुआ देखा जाना | हमारे द्वारा प्रतिपादित मह व्यवस्था तर्कसंगत और आपके द्वारा प्रतिपादित वह व्यवस्था तकविरुद्ध भी इसलिये है कि जब तक कुम्हारका व्यापार घड़े के निर्माणके अनुरूप होता जाता है तब तक तो धड़ेका निर्माण कार्य भी होता ही जाता है लेकिन यदि कुम्हार अपने इस व्यापारको बन्द कर देता है तो घड़ेका निर्माण कार्य भी उसी क्षण बन्द हो जाता है— इस तरह घटनिर्माण के साथ कुम्हारके व्यापारका अन्य व्यतिरेक निर्णीत होता है। हमारे द्वारा प्रतिपादित और आपके द्वारा प्रतिपादित कार्यकारणभाव व्यवस्थाको क्रमशः आगमप्रसिद्धता और आगमविरुद्धता के विषय में भी यह बात कही जा सकती है कि हम ऊपर जो प्रमाण अगमके दे आये है उनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कार्यकारणव्यवस्था में जितनी उपयोगिता उपदान कारणकी है उतनी ही उपयोगिता निमित्तकारणकी भी है, इसलिए जिस प्रकार उपादानोपादेयभाव वास्तविक है उसी प्रकार निमित्तनैमित्तिकभाव भी वास्तविक है। उपचरित अर्थात् कल्पनारोपित या अचित्कर नहीं है। इसलिये हमारे द्वारा प्रतिपादित कार्यकारणभाव व्यवस्था आगम प्रतिपादित है - ऐसा प्रत्यक्ष हूँ । आपने भी अपने द्वारा मान्य कार्यकारणव्यवस्थाके समर्थन में आगम के प्रमाण दिये हैं, परन्तु हमें दुःख के साथ कहना पड़ता है कि उनका अर्थ भ्रमवश अथवा जानबूझकर आप गलत ही कर रहे हैं, जैसा कि हमने स्थान-स्थान पर सिद्ध किया है, सिद्ध करते जा रहे हैं और सिद्ध करते जायेंगे। इसलिये हमें कहना पड़ता है कि निमित्तनैमित्तिकभावकी कल्पनारोपितताकी सिद्धिके लिये आगम में एक भी प्रमाण उपलब्ध न होनेके कारण आपके द्वारा प्रतिपादित कार्यकारणभावव्यवस्था आगमविरुद्ध भी है। इसी प्रकार आपके द्वारा प्रतिपादित कार्यकारणभावको व्यवस्था मापकी स्वयंकी प्रवृत्तियोंके भी विरुद्ध है - ऐसा हमें तो कमसे श्रम दिख हो रहा है, स्वयं इसी तरह मान होता है या नहीं, यह आप जानें, परन्तु हमारे द्वारा प्रतिपादित आगमव्यवस्था हमारी आपको और लोकमात्रको प्रवृत्तियों से अविरुद्ध ही है ऐसा हम जानते हैं । आगे आपने राजनार्तिक के कथनका प्रमाण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयास किया है कि 'जब कोई भी द्रम्प अपने विवक्षित कार्यके सन्मुख होता है तभी अनुकूल अन्य द्रव्यों की पर्यायें उसकी उत्पत्तिनिमित्तमात्र होती हैं।' राजवातिकका वह कथन निम्न प्रकार है यथा मृदः स्वयमन्तर्घ भवन परिणामाभिमुख्ये दण्ड-चक्र- पौरुषेयप्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति, अतः सरस्वपि दण्डादिनिमित्तेषु शंकरादिप्रचिती मृत्पिण्डः स्वयमन्तर्घटभवन परिणामनिहत्सुकत्वान्न घटीभवति, अतः पिण्ड एवं वाह्मदण्डादिनिमित्तसापेक्ष आभ्यन्तरपरिणामसानिध्याद् घटो भवति न दण्डाद इति दण्डादि निमित्तमात्रं भवति । अ० १ सू० २० इसका जो हिन्दी अनुवाद आपने किया है उसका विरोध न करते हुए भी हमें कहना पड़ता है कि राजवार्तिकका यह कथन आपके एकान्त पक्षका समर्थन करने में बिल्कुल असमर्थ हूँ । आपका पक्ष जिसे आपने स्वयं ही अपने शब्दोंमें मिबद्ध किया है— यह है कि न तो सब प्रकारको मिट्टी ही घटक उगदान है और न ही विश्व स्थास, कोश और कुशूलादि पर्यायोंकी अवस्थारूपसे परिणत मिट्टी घटका उपादान है, किन्तु जी मिट्टी बनन्तर समय में घट पर्यायरूपसे परिणत होनेवाली है मात्र यही मिट्टी घटका उपादान है ।' आगे आपने लिखा है कि 'मिट्टोको ऐसी अवस्थाके प्राप्त होने पर वह नियमसे चटका उपादान बनती है ।'
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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