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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा अर्थ-इस प्रकार गुणयुक्त पंचपरमेष्ठियोंको जो भव्य निर्मल मन, वचन तथा नायसे नमस्कार करता है वह निर्षाण सुखको प्राप्त करना :
भत्तीए जिणवराणं खोयदि य पुरवसंचियं कम्म ।
आयरियपसाएण य विजामंता व सिझति ।।८१॥ अर्थ-जिनेश्वरको भक्तिसे पूर्व संचित कर्मका नाश होता है । आचार्यको कृपासे विद्याओंको तथा मन्त्रोंको सिद्धि होती है। द्वादशांगमें तीन भक्ति संसार विच्छेदका कारण है।
...-श्री घनल पु० १ पृ० ३०२ दाणु ण विष्णउ मुनिवरह कवि पुजिउ जिपपाहु । पंच प्य बंदिय परमगुरू किमु होसह सिंघलाहु ।।१६।।
-परमात्मप्रकाश अ०२ अर्थ-मुनीश्वरोंको दान नहीं दिया, जिनेन्द्र भगवान् को नहीं पूजा, पंच परमेष्ठीको वन्दना (पूजा) नहीं को, तब मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है।
जन्मारण्यशिखी स्तवः स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधे? पदे। भक्कानो परमी निधिः प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा । बन्दीभूतपसोऽपि नोतिहतिर्नन्तुश्च ये वो मुदा । दातारी जयिनी मवन्नु घरदा देवेश्वरास्ते सदा ।।११५॥
–श्री समन्समदरचित स्तुतिविद्या अर्थ-जिनका स्तवन संसाररूप अटवीको नष्ट करनेके लिये अग्निके समान है, जिनका स्मरण दुःखरूप रामुद्रसे पार होनेके लिये नौकाके समान है, जिनके चरण भक्त पुरुषों के लिये उत्कृष्ट निधान (खजानों) के समान है, जिनकी श्रेष्ठ प्रतिकृति (प्रतिमा) सब कार्योको सिद्धि करनेवाली है, जिन्हें हर्षपूर्वक प्रणाग करनेवाले एवं जिनका मंगलगान करनेवाले नग्नाचार्यहपसे रहते हुये भी मुझ-समन्तभद्रको उन्नति में कुछ बाघा नहीं होती, वे देवोंके देव जिनेन्द्र भगवान् दानशील, कमंशत्रुओं पर विजय पानेवाले और सबके मनोरथोंको पूर्ण करनेचाले होवें।
कर्म भक्त्या जिनेन्द्राणां क्षयं भरत गच्छनि । क्षीणकर्मा पदं याति यस्मिननुपमं सुखम् ।। १८३॥
-श्री पद्मपुराण पब ३२ अर्थ-हे भरत ! जिनेन्द्रदेवकी भक्तिसे कर्म क्षयको प्राप्त हो जाता है और जिसके कर्ममय हो जाता है वह अनुपम सुखमे सम्पन्न परम पदको प्राप्त होता है।
नमस्यत जिनं भक्ष्या स्मरतानारतं तथा । संसारप्तागरं येन समुत्तरतं निश्चितम् ॥१२५||
-श्री पद्मपुराण पर्व ३९ अर्थ-भक्तिपूर्वक जिमेन्द्र भगवानको नमस्कार करो और निरन्तर जन्हींका स्मरण करो, जिससे निश्चयपूर्वक संसारसागरको पार कर सको।