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शंका १३ और उसका समाधान
६६९ एकापि समर्थयं जिनमकिदुगति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितु मुक्तिश्रियं कृतितः ।।१२५
--उपासकाध्ययन अर्थ-अकेली एक जिन-भक्ति ही जीवके दुर्गतिका निवारण, पुण्यका संचय करनेमें तथा मुक्तिरूपी लक्ष्मीको देने में समर्थ है।
नाममात्रकथया परात्मनो भूरिजन्मकृनपापसंक्षयः । बोधवृसरुययस्तु सद्गताः कुर्वते हि जगतां पति नरम् ॥४२॥
-पद्यनन्दि पंचविशति भ.. अर्थ-परमात्माके नाममात्रको कथासे हो अनेक जन्मों में संचित किये हुए पापोंका नाश होता है तथा उक्त परमात्माम स्थित ज्ञान, चारित्र, सम्यग्दर्शन मनुष्यको जगत्का अधोश्वर बना देता है ।
मरद व जियन व जीयो अयदाचारस्त णिच्छिदा हिंसा । पथदरस स्थिबंधो हिंसामत्तण समिदस्म ॥२५॥
-प्रवचनसार अर्थ-जीव मरे या जिये, अप्रयत्न आचारबालेके हिसा निश्चित है। प्रयत्नपूर्वक गमिति पालन करनेवालेके (बहिरंग) हिंसामात्रसे बन्ध नहीं है।
समिति पालन करना व्यवहारधर्म है। ऐसे व्यवहार धर्मको पालन करनेसे, बहिरंगमें जोवादिको हिसा हो जाने पर, बन्ध नहीं होता है। इसी आशरको 'श्री पुरुषार्थासद्धि अगाय में बहुत स्पष्ट किया गया है । ऐसी परिस्थितिम यह कहना कि व्यवहार धर्मरूप शुभभाव मात्र रागांश का नाम है और उससे बन्च ही होता है, उपचार मात्रसे सहचर होने के कारण मोक्षमार्ग कहा गया है यह कथन कैसे बागमसे मेल खा सकता है, अर्थात् प्रागमविरुद्ध ही है ।
ऐसे अनेकों ग्रन्थ भी प्रमाण है जिन आगममें गृहस्थांके लिये देवपुजा, गुरू पस्ति तथा दान आदि और मुनियोक लिये स्तवन, वन्दना, प्रतिज्ञमण, प्रत्याख्यान आदिरूप व्यवहार धर्म नित्य षडावश्यक कार्योमें गभित किया है । यदि यह कार्य मात्र बन्धके ही कारण हैं तो क्या महर्षियोंने बच्छ कराने और संमार डुबानका उपदेश दिया है । ऐमा कभी सम्भव नहीं हो सकता है । इनको इसी कारण आवश्यक बतलाया है कि इनसे मोक्षको प्रापिन होली है, जैसे कि उपरोक्त प्रमाणोंसे सिद्ध है।
अब प्रश्न यह होता है कि इस व्यवहार धर्म के समग प्रशस्त रागसे जो सातिशय पुण्यबन्ध होला है तथा यह संसारका कारण है। परमार्थ दृष्टि से इम व्यवहारधमको पालन करने वाला शुभोपयोगी जीत्र उस रागांशसे पंचेन्द्रियोंके विाय या सांसारिक सुखकी प्राप्तिकी इच्छा नहीं करता है। पंचेन्द्रिय. विषय और सांसारिक सुखसे, हय शासकर, विरक्त हो गया है। उसकी आसक्ति तो वीतरामताम है। इस रागको छोड़ने का हो पूर्ण प्रयत्न है। अत: इससे बन्च होते हुए भी यह रागांश संभारका कारण नहीं हो सकता है। संसारका कारण तो वास्तविकमें राम में राग (उपादेव बुद्धि)है। उसकी तो विरागताम उपादेय बद्धि है। इन पुण्य प्रकुतियोंके उदयसे ऐ व्य, क्षेत्र, काल तथा भवको प्राप्ति होती है जो मोक्ष-मार्गमें सहायक है, बाधक नहीं हैं। उन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भवके आश्रयसे मोक्षके लिये