SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शंका है और उसका समाधान नुसार निर्भर है-इस अनुभवपुर्ण स्थिति के आधार पर इस विषयमें हमारा दृष्टिकोण यह है और लोकमें प्रसिद्ध भी यह है कि कोई किसान बीजके लिये गेहूँको आवश्यकता होनेपर उसकी स्वरीदी करने के लिये बाजारमें जाता है और वह यह देखकर या समझकर कि अमुक गेहूँ अंकुररूपसे उत्पन्न होने में Hमर्थ है, उस गेहूँकी खरीदी कर लेता है। फिर वह किसान आगे कभी यह नहों सोचता है कि सरीधा हुआ वह गेहूँ अंकुरादि रूपसे परिणत होनेको अपनेमे विद्यमान योग्यताके अलावा किसी अन्य विलक्षण योग्यताको निश्चित समयपर अपने प्राप ग्रहण करके अपादानकी भूमिका पदार्पण करेगा और तब उससे अंकुरकी उत्पत्ति हो जायगी। उसके सामने तो जब उसने गेहूँको अंकूररूपसे उत्पन्न होने के योग्य समझकर बाजारसे खरीद किया, तबसे केवल इतना हो सांवल्प और विकल्प रहा करता है कि अंकररूपसे उत्पन्न होने के लिये यथायोग्य बाह्य साधन-सामग्री के सहयोगसे उस गैहुँको अपने पुरुषार्थद्वारा उचित समयगर खेत में बो दिया जावे । इस प्रकारके संकल्प और विकल्प के साथ एक और तो बह किसान उस गेल्को खेत में बोनेकी जितनी व्यवस्थायें मावश्यक ही उन्हें यायोग्य तरीकों द्वारा सम्पन्न करता है तथा दूसरी ओर बह इस बातको भी ध्यान में रखता है कि कहीं ऐसा न हो कि गेहूँ खर्च हो जाये या चोरी चला जावे अथवा ऐसी जगहपर न रखा जावे जहाँपर रखनसे वह गेहूँ घुनकर या राड़कर अंकुररूपसे उत्पन्न होने को अपनी योग्यतासे वंचित हो जावे। किसानको संकल्प, विकल्प और पुरुषाथको यह प्रक्रिया तबतक पाल रहती है जब तक उस गेहेको यधावसर वह खेतमें बो नहीं देता है। इसके बाद मी गहूँके अंकुरक परो परिणमित होने की समस्या उसके सामने बनी ही रहती है, बर: वह अस समय भी गहेंके अंकुरोत्पत्ति के अनुकूल पानी आदि प्राकृतिक और अप्राकृतिक साधना की आवश्यकता या अनावश्यकताके विकल्पों में तबतक पड़ा रहता है जबतक कि उस गेहूंका परिणमन अंकुररूपसे नहीं हो जाता है । अब गेहूँसे अंकुगत्पत्ति होने के अनुकूल गेहूँ की प्रक्रियापर भी विचार कीजिये और गेहूँकी इस प्रक्रियापर अब विचार किया जाता है तो मालूम पड़ता है कि एक तरफ तो गेहूँरो अंकुरोत्पत्ति होनेके संकल्पपूर्वक किसान यथासंभव और यथायोग्य अगा तदनुकूल पापार चालू रखता है तथा दुसरी ओर किसानके उस व्यापारके सहयोगगे गेह में भी यथासंभव विविध प्रकारको परिणतियाँ मिलमिलेवार चाल हो जाती है जिन्हें मेहँसे अंकुरोत्पत्तिके होने में उत्तरोत्तर क्रगसे आविर्भत होनेवाली योग्यता भी कहा जा सकता है अर्थात् बाजारसे स्वमंदन क बाद किसान चरा गेको सुरक्षाके लिहाजसे चित्र समझकर जिस स्थान पर रखनेका पुरुषार्थ करता है गईदेवताका किमानकी मर्जी के मताविक वदों आयन जम जाना है। इसके अनस्तर किसान जब अनुकूल अव-र देखकर उस गेहूँको बोने के लिये खेत ले जाना उपयुक्त समझता है या ले जानेका संकल्प करता है तो यथासम्भव जो भी साधन उस गेहूँको खेतपर ले जाने के लिए उस किसानको उस अबसर पर सुलभ रहते है, उन साधनों द्वारा एक और तो वह निशान उस गहुँको खेतपर ले जानेरूप अपमा पुरुषार्थ करता है और दूपरी और उस किसानके यथायोग्य अनुकूल उन पुरुषार्थके सहारेसे गेहूंदेवता भी खेतपर पहुंच जाते हैं। इस प्रक्रियामे भी किसान यदि गडेको सुरक्षाके उपयुक्त साधन नहीं जुटाता है या नहीं जुटा पाता है तो उस सत्र गेहूँमसे कुछ दाने तो मार्गमें ही गिर जाते हैं कुछ दानोंको नौकर आदि भी चुरा लेता है. इस तरह कभी होते होते जितना गेहूँ शेष रह जाता है उसे बह किसान यथासम्भव प्राप्त ट्रेक्टर या हल आदि साधनों द्वार। दोनरूप पुरुषार्थ स्वयं करता है या नौकर आदिसे बोनरूप पुरुषार्थ करवाता है और तब उस किसान या उसके उप नौकरके पुरुषार्धवे सहयोगसे वे गेहूँदेवता खेतके अन्दर समा जाते हैं।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy