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________________ ३९६ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा इस तरह गेहे की बुवाई हो जानेपर गेहुँके कोई-कोई दाने अपने अन्दर अंकररूपसे उत्पन्न होनेको स्वाभाविक योग्यताका अभाव होने से तथा कोई-कोई दाने उक्न प्रकारको योग्यताका अपने अन्दर सद्भाव रखते हुए भी बाह्य जलादि साधनों के अनुकूल महयोगका अभाव होनेसे अंकुररूपसे उत्पन्न होने की अवस्थासे वचित रह जाते है, शेष उक्न प्रकार की योग्यता सम्पन्न गेहूँ यथायोग्य बाहा साधनोंकी मिली हुई अनुकूल सहायताके अनुसार अर्थात् कोई-कोई दाने तो अपने अन्दर पायी जानेवालो उक्न स्वाभाविक योग्यताको समानता और असमानताके आधारपर तथा कोई-कोई दाने बाह्य साधनों की सहायताकी समानता और असमानताके आधारपर समान तथा असमानरूपसे अंकुर बनकर प्रगट हो जाते हैं। इस प्रकार आपके प्रश्नका उत्सर यह है कि गेहूँ अंकृशेषति पयंत उत्तरोतर किसानके घ्यापारका सहयोग पाकर अपनी पारणतियाँ करता ही अन्त में अकुर बन जाता है। स्पष्टीकरणके रूप में यहाँपर इस दृष्टान्त में विचारना यह है कि गेहेमें अंकूरोल्पातकी विद्यमान योग्यता तो उसकी स्वाभाविक निजी सम्पत्ति थी, उसे किसानने उस गेहूँम उत्पन्न नहीं किया और न उसके प्रभावमें केबल किसानके अनुकूल पुरुषार्थ द्वारा ही वह गेहूँ अंकुर बना, किन्तु गेहूँ में विद्यमान उपन प्रकार की योग्यताके सद्भावमें बाह्य मापन सामग्री के सहयोगसे अपनी कार बतलायी गयी पूर्व-पर्व अवस्याओंमेंसे गुन रता हुआ ही वह गेहूँ अंकुर बन सका। इतना हो नहीं, अंकुर बनने से पूर्व और दूसरे प्रकारको बहुत-मी या बहुत प्रकार की योग्यताएँ उस गेहूँ में थी जो अनुकूल बाह्य साधन सामग्रीके अभाव में विकसित अर्थात् कार्यरूपसे परिणत होनेसे रह गयीं या अपने-आप उनका उस गेहूँमें से खात्मा हो गया । जैसे उस सभी गेहूँमें पिसकर रोटी बनने की भी योग्यता थी, उसमे घुनने या सहने आदिकी भी योग्यताएँ थी जो अनुकूल बाह्य साधन सामग्रीका सहयोग अप्राप्त रहने के कारण या तो विकसित होनेसे रह गयीं अथवा उनका यथायोग्यरूपसे खात्मा हो गया और मेहूँ में बहुत से दाने भिन्न-भिन्न रूपमें प्राप्त बाह्य साधन सामग्रीकी सहायताके अनुरूप या तो पिस गये, मागमें गिर गये, घन गये या सड़ समे; इस तरह वे दाने अंकुररूपसे उत्पन्न होनेसे वंचित रह गये । गेहूँके जिम दानोंकी अंकुररूप पर्याय बनी बह नामसे बनी तथा उसके बनने में किसानको सिलसिलेवार किसना और कितने प्रकारका पुरुषार्थ करना पड़ा, यह सब प्रकट है। जैसे किसान गेहूँ को बाजारसे खरीदकर घर ले गया, उसने उसको घुनने, सड़ने अथवा पिसने आरिसे रक्षा की, खेतपर उसे ले गया और अन्त में बोने का भी पुरुषार्थ किया तब गेहूँ की बुवाई हो सकी और तब बाद में वह अंकुर के रूपको धारण कर सका। इस अनुभव में उतरनेवाली कार्यकारणभावकी पद्धतिकी कापेक्षा करके आपके द्वारा इस प्रकारका प्रतिपादन किया जाना कि-गेहूँ अपमे विवक्षित उपादानको भूमिकाको अपने आप प्राप्त करता हुआ ही अंकुरादिका परिणत होता है-विल्कुल निराधार है। इस विषय में आमम प्रमाण भो देखिए स्त्रपरप्रत्ययोत्पादषिगमपर्यापैः इयन्ते, इवन्ति वा तानीति द्वन्याणि ....."दृष्य क्षेत्र-काल-भावसक्षणी बाझ प्रत्यय: परप्रत्ययः, तस्मिन् सस्यपि स्वयमसम्परिणामोऽर्थो न पर्यायान्तरमास्कन्दप्तीति तत्समयः स्वच प्रत्ययः, सावुभौ संभूय भावना उत्पादविगमयो हेत् भवतः, नान्यतरापामे कुशूलस्थमाषपच्यमानो. दकस्थघोटकमाषवत् ।-राजवार्तिक अध्याय ५ सूत्र २ इसका भाव यह है कि स्व ( उपादान ) और पर कारण ( निमित्तभूत अन्य पदार्थ ) द्वारा होने. वाली उत्पाद-व्ययरूप पर्यायांसे जो बहता है या उन पर्यायोंको जो बहाता है उसे द्रव्य कहते है..."द्रव्य क्षेत्र काल भाषका बाह्य कारण पर प्रत्यय है, उसके होते हुए भी स्वयं उस रूपसे अपरिणमनशील पदार्थ पर्यायान्तरको नहीं प्राप्त होता है। उस पर्यायान्तर रूपसे परिणत होने में समर्थ स्वप्रत्यय है। वे दोनों (ल
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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