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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा
इससे स्पष्ट है कि जीव द्रव्यकर्म और दशरीरका कर्तृत्व असद्द्भुत व्यवहाररूप अर्थात् उपचरित ही है, क्योंकि अद्भूत व्यवहार और उपचार हम दोनों का एक ही आशय है। फिर भी इनमें एक क्षेत्रावगाह रूप संश्लेषका ज्ञान करानेके लिए यहाँपर विशेषणरूपमें अनुपवरित शब्द प्रयोग हुआ है। किन्तु कुम्भकार और घटमें एक क्षेत्रागाहरूप भी संस्लेषमम्बन्ध नहीं है, इसलिए कुम्भकार में घटके कर्तृत्वको उपचरिता सद्भूतव्यवहाररूप अर्थात् उपचरितोपनाररूप बतलाया है। बृहद्रश्यसंग्रहका आशय स्पष्ट है। समयसार आत्मस्याति गाथा ४६ की टीका, नयत्रक्रसंग्रह तथा आलापपद्धतिके कथन के प्रकाशमें वृहद्रव्यसंग्रहके उक्त उल्लेख को पढ़ने पर अपर पक्षको भी यह आशय स्पष्ट हो जायगा ऐसा हमें विश्वास है। हाँ यदि वह उक्त आगम प्रमाणको लक्ष्य मे लिये बिना अपन मनसे संग्रह उल्लेखका दूसरा अर्थ करता है जैसा कि उसको ओरसे प्रस्तुत प्रतिशंका किया गया है तो उसका कोई चारा नहीं। हर अवस्था में हम तो वहो अर्थ करेंगे जिसे समग्र आगम एक स्वर से स्वीकार करता है । आचार्य ममन्तभद्र आप्तमीमांसा में लिखते हैं-सवेच सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्यात् ।
असदेव विपर्यासान्न पेन व्यवतिष्ठते ॥ १५ ॥
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ऐसा कौन है जो स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा सभी पदार्थको मत्स्वरूप हो नहीं मानता और पर रूपादिचतुष्टयको अपेक्षा अस्वरूप ही नहीं मानता, क्योंकि ऐसा स्वीकार नहीं करने पर तत्व की व्यवस्था ही नहीं बन सकती ॥१५॥
इससे स्पष्ट है पृथक्भूत घटका कारणधर्म कुम्भकार में नास्तिरूप ही है और हमी प्रकार कुम्भकारका कार्यधर्म घटमें नास्तिरूप ही है । निश्वयसे ( यथार्थ में) न कुम्भकार का कर्ता है और न घट कुम्भकारका कर्म है । समयसार आदि परमागम इसी सत्यका उद्घाटन करता है। घाव है वह जिनवाणी और धन्य है वे महापुरुप जिन्होंने इस परम सत्यको उद्घाटनकर जड़-चेतन प्रत्येक की स्वतन्त्रता और परिपूर्णताका मार्ग प्रशस्त्र किया है। यह वस्तुस्थिति है। इसे हृदयसे स्वीकार करके जो व्यवहार पक्षको जानने के हैं इच्छुक उन्हें व्यवहार पक्षका आशय और प्रयोजन समझने में देर नहीं लगती। उपचरित अर्थको कल्पनारोपित कह कर उड़ाना अन्य बात है और अधिकतर लोकवहार उपचरित अर्थके आलम्बनसे चलता है इसे स्वीकार कर वस्तुस्थितिको हृदयंगम कर लेना अन्य बात है |
अपर पक्षका कहना है कि 'ज्ञानावरणादि कर्मों और औदारिक आदि शरीरोंका निर्माण जीव अपने से अथकरूपमें ही किया करता है तथा घटपटादिका निर्माण वह अगतेसे पृथकरूपमें किया करता है ।' किन्तु अपर पक्षका ऐसा लिखना कैसे अमंगत है उसके लिए समयसार कल के इस वचन पर दृष्टिपात कीजिए --
कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृस्वचत् ।
अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः ।। १९४ ॥
जैसे पर पदार्थोंका भोगना आत्माका स्वभाव नहीं है उसी प्रकार पर पदार्थोंका निर्माण करना भी आत्माका स्वभाव नहीं है । वह अज्ञान से ही कर्ता है, अज्ञानका मात्र होनेपर अकर्ता है ॥१६४॥
यहाँ वह प्रश्न किया जा सकता है कि जव तक वह जीव अज्ञानी है तब तक तो उसे कर्म, नोकर्म और घटादि पार्थीका कर्ता ( निर्माण करतेशला ) मानना चाहिए। समाधान यह है कि अज्ञानसे भी वह द्रव्यकर्मादि पदार्थोंका निर्माण नहीं कर सकता । वहाँ उसे जो कर्ता कहा गया है वह अपने विकल्पोंका ही