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शंका ६ और उसका समाधान
४७५ पद्धतिक पूर्वोक्त कथनमें और इस कथनमें कोई अन्तर नहीं है, दोनोंका आशय एक ही है। एक द्रव्यके धर्मका दूसरे द्रव्यमें निराधार और निष्प्रयोजन आरोप करना असद्भुत व्यवहारनयाभास है और साधार सप्रयोजन आरोप करना समीचीन नय है। आकाश वृक्ष के फलबा या गधे के सिरमें गाय आदिक सोंगका आरोप करना एक तो निष्त्रयोजन है। दूसरे आकाशमें फुलके सदृश और गधेके सिरमें सींगके सदृश कोई धर्म भी नहीं पाया जाता, इसलिए आकाशमें फलका और गधेके सिरमें सौंगका आरोप करना किसी भी अवस्थामें सम्भव नहीं है । जहाँ यह ठीक है वहाँ घटादि कार्यों में कुम्भकारादिके नैमित्तिकत्व धर्मका और कुम्भकारादिमें बटादिके निमितत्व धनका समारोप करना भी ठीक है, क्योंकि एक द्रव्यको जिस परिणतिके साथ दसरे द्रव्पकी जिस परिणतिका नियमसे एक Arय होने का योग है उसको रजा से होती है। इसोको काल प्रत्यासत्ति कहते हैं। साथ ही प्रत्येक द्रव्य में अपना-अपना निमित्तत्व ( कारणत्व ) और नैमित्तिकत्व (कार्यत्व ) धर्म भी पाया जाता है, यही कारण है कि आगममें असद्भुत व्यवहार नयके विषयको उपचरित बतलाया गया है। ये सब तथ्य अपर पक्षके लिए अनवगत हों ऐसी बात नहीं है, फिर नहीं मालूम कि वह क्यों ऐसे मार्गका अनुसरण कर रहा है जिससे आगमवे अर्थका विपर्यास होना सम्भव है।
बृहद् व्यसंग्रह में असद्भत व्यवहारनयके जारित और अपनवरित ये दो भेद किये गये है इसमें सन्देह नहीं, पर वहाँ इसके इन दो भेदोंके करनेका कारण क्या है यह भी उस उल्लेखसे स्पष्ट हो जाता है। वहीं परस्पर अवगाहरूप संश्लेष सम्बन्धको दिखलाने के लिए असद्भुत व्यवहार के पूर्व विशेषणरूप अनुपवरित वान्दका प्रयोग हुआ है और जहां इस प्रकारका एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध न होते हुए भी प्रयोजनवश कर्ता-कर्म आदि धर्मोका ( एक दूसरे ) समारोप किया गया है वहां असद्भूत व्यवहारके पूर्व विशेषणरूप में उपचरित शब्दका प्रयोग हुआ है। इसी तथ्यको दूसरे रूपमें आलापपद्धतिमें इन शब्दोंमें व्यक्त किया है
सन्न संश्लेपरक्षितवस्तुसम्बन्धविषय उपचरितास तव्यवहारः, यथा देवदत्तस् धनम् । संश्लेषसहितवस्तुसम्बन्धविषयोऽनुपचरितासद्भुत व्यवहारः, यथा सीवस्थ शरीरमिति ।
उनमेसे संश्लेषरहित वस्तुओं के सम्बन्धको विप करनेवाला उगवरित असद्भूनव्यवहार है, जैसे देवदत्तका धन तथा संश्लेषसहित वस्तुओं के सम्बन्धको सिषय करनेवाला अनुपचारित असद्भूतवपवहार है, जैसे जीवका शरीर।
यहाँ न तो देवदत्तका धनमें रागभावको छोड़कर अन्य कोई मेरापन है और न ही जीवका शरीरमें रागभावको छोड़कर अन्य कोई मेरापन है । जैसे घन पुद्गलद्रव्य का परिणाम है से हो शरीर भी गुगल द्रव्यका परिणाम है । जीव तो चेतन द्रव्य है ही, देवदत्त नामत्राला जीव भी चेतन प है। अतएव इनका पुदगल द्रव्यस्वरूप धन या शरीरके साथ वास्तविक क्या सम्बन्ध हो सकता है ? अर्थात् कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। फिर भी देवदत्त धनको और जीव शरीरको मेरा मानता है सो उसका एकमात्र कारण रागभाव ही है। अतएव देवदत्त और जीवका सच्चा संयोग रागभावरूप ही है, धन और पारीररूप नहीं। धन और शरीरका संयोग कहना उपचरित है तथा रागभावहा संयोग कहना यथार्थ है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए मूलाचार प्रथम भाग गाथा ४८ की टीकामें लिखा है
अनारमनीनस्यात्ममावः संयोगः । अनात्मीय वस्तुओंमें आत्मभाव होना संयोग है।