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शंका ६ और उसका समाधान
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कर्ता कहा गया है, पकर्म, नोकर्म और घटादि पदार्थोंका नहीं । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए समयधार कामे लिखा है
विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलम् | न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नयति ॥९५॥
free करनेवाला जी ही केवळ कर्ता है और विकल्प ही केवल कर्म (कार्य) है जो जो विकल् साहित है उसका कर्ता-कर्मपना कभी नष्ट नहीं होता ॥६५॥
हमी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वाचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैयोगोपयोगयोस्त्वात्मविदावारीः कदाचिदज्ञानेन करणादात्मापि कर्तास्तु तथापि न परद्रव्याकर्मकर्ता स्यात् ।
विरार दो का उपयोग रागादिविकारयुक्त चैतन्यपरिणाम ) को कथाचित् ज्ञानसे करने के कारण उनका आत्मा भी कर्ता रहो तथापि पर द्रव्पस्वरूप कर्म, नोकर्म और घटपटादि कार्योंका वह त्रिकालमें निर्माण करने वाला नहीं हो सकता ।
इस प्रकार आचार्य वचन तो यह है कि यह जीव इव्यकर्म, नोकर्म और घटपटादि पदार्थोंका त्रिकाल में निर्माण नहीं कर सकता और अपर पक्ष कहता ही नहीं लिखता भी है कि 'यह जीव अपने से अपृथकरूपमें कम और औदारिकादि खरी रोंका तथा पृथकरूपमें घटपटादिका निर्माण किया करता है।' ऐसो अवस्थामे सहज हो यह प्रश्न उठता है कि इनमें से किसे प्रमाण माना जाय आनायके पूर्वोक्त कथनको या अपर पक्ष कपनको ? पाठक विचार करें।
अपर पक्ष कहेगा कि आचार्योंने उक्त वचनों द्वारा प्रव्यकर्म, नौकर्म और घटपटादि पदार्थोका आत्मा निश्चय कर्ता है ऐसा माननेका निषेध किया है, निमित्तकर्ता माननेका नहीं ? समाधान यह है कि आगममें द्रव्यकर्मादिका निमित्तकर्ता ज्ञान जो आत्माको कहा है वह किस नयकी अपेक्षा कहा है इस सम्यक विचार करने पर विदित होता है कि जहाँ जहाँ इस प्रकारका कमन किया गया है वह मूलहारनयकी अपेक्षा ही किया गया है और असद्भूत व्यवहारसा अर्थ है एक द्रव्यके गुण-धर्मको दूसरे द्रव्य पर आरोपित करना । उपचार भी इमोका नाम है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ जहाँ एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यका निमित्त कर्ता, प्रेरक कर्ता, परिणमानेवाला जादि शब्दों द्वारा कहा गया है वह मात्र उपचार नपका आय लेकर ही कहा गया है। संग्रहके उक्त लेख भी यही आशय है। अतएव अपर पक्ष के इस कथनको कि 'ज्ञानावरणादि कर्मों और औदारिकादि शरीरोंका निर्माण जीव अपने अनुरूपमे ही किया करता है तथा घटपटादिका निर्माण वह अपने से पृथकरूपमें किया करता है । यथार्थ न मानकर हमारे इस कथनको कि 'जब प्रत्येक द्रव्य सद्रूप है और उसको उत्पाद व्यय-धौव्यस्वभाववाला माना गया है तो ऐसी अवस्था उसके उत्पादनको स्वतः स्वयंकृत मान लेना ही श्रेयस्कर है। फिर भी इसके विरुद्ध उसे अन्य के कर्तृव पर छोड़ दिया जाय और यह मान लिया जाय कि अन्य द्रव्य जब चाहे उसमें किसी भी कार्यको उत्पन्न कर सकता है तो यह उसके स्वतन्त्र स्वभाव पर आधात ही है ।
आगे अपर पाने उपादानको कार्यके साथ अन्तुष्यप्ति और निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री की के साथ ब्राह्म व्याप्तिको चरचा करके उपादानको कार्यके प्रति एक उपायरुपकारणता स्वीकार को है। किन्तु जब कि अपर पक्ष अपनी प्रतिशंका यह स्वीकार करता है कि 'ज्ञानावरणादि