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________________ ६६० जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा निष्कर्ष इस तरह परम आध्यात्मिक ऋषि श्रीआचार्य कुन्दकुन्द, श्रीअमृत चन्द्र सूरि, श्री वीरसेन आचार्य आधिके आर्ष प्रमाणोंसे प्रमाणित होता किपण्यभाव अर्थात दौथे, पांचवें, छटे व गातवें गणस्थानका शभपरिणाम या व्यवहार चारित्र कोंके संवर तथा निर्जराका भी कारण है। ( इनमें जितना रागांश है उससे शुभास्रव बन्ध होता है तथा जितना निवृत्ति अंश है उससे निर्जरा होती है। सानिशय अप्रमत्त गुणस्थानके अन्तिम समयका पुण्यभाव दूसरे समयमें शुद्धोपयोगरूप हो जाता है । इस तरह जब पुण्यभाव और शुद्ध भावमें उपादान-उपादेयभाव है तब शुद्ध परिणतिका भी जनक पुण्यभाव त्याज्य या हेय किस तरह हो सकता है ? अर्थात् सम्यग्दृष्टिका पुण्यभाव स्याज्य नहीं है। अत: प्रवचसारवर्ती श्री कुन्दकुन्द आचार्यका वचन-पुण्णफला अरहन्ता' श्री कुन्दकुन्दाचार्य के प्रत्येक भवतको श्रद्धा साध सत्य मानते हुए अरहन्त पदपर भी बिठा देनेवालें पुण्यभावको हेय ( छोड़ने योग्य) कभी न समझना चाहिये न कहना चाहिये, क्योंकि बिना पुण्यभाव के ( गुणस्थान क्रमानुसार ) शुद्धभाव विकालमें भी नहीं हो पाते। शंका १३ पुण्यका फल जब अरहन्त होना तक कहा गया है ( पुण्यफला अरहता प्र. सा० ) और जिससे यह आत्मा तीन लोकका अधिपति बनता है, उसे सर्वानिशायी पुण्य बताया है ( सर्वासिशायि पुण्यं तत् त्रैलोक्याधिपतित्वकृत् ) तब ऐसे पुण्यको हीनोपमा देकर त्याज्य कहना और मानना क्या शास्त्रोक्त है ? __ प्रतिशंका २ का समाधान समाधान में यह स्पष्ट बताया गया था कि सबंत्र प्रयोजनके अनुसार उपदेश दिया जाता है । प्रतिशंका २ में उसे हृदयसे स्वीकार भी कर लिया गया है, फिर भी यह प्रश्न उठाया गया है कि 'जो बात चतुर्थ कालमें भी ग्राहा थो वह पंचमकालमै अग्राह्य फैमी ?' समाधान यह है कि मोक्षमागका प्ररूपण कालभेदसे नहीं बदलता है, पुण्ण और पाप ये दोनों कर्म के भेद हैं और इन्हें नाश कर हो मोक्ष प्राप्त होता है यह जैनमार्गकी प्रक्रिया है, जिसे सब जानते हैं। 'पुण्यका फल अरहन्त है, वह सर्वातिशायि पुण्यसे त्रैलोक्यका अधिपति बनता है।' ये शास्त्रों में वाक्य प्रमाणीभूत है पर देखना यह है कि किस बिधशासे इनका निरूपण है। बारहवें गूणस्थानमें सर्वमोहके श्रीण हो जानेपर जो वीतराग भाव होता है वह अरहन्त पद ( केवलीपद) का निश्चयसे हत है। उस समय जो शुभप्रकृतियोंका कार्य है उसमें इसका उपचार होनेसे उस पुण्यको भी अरहन्त पदका कारण ( उपचार ) से भागममें कहा गया है । अन्यथामोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायशयाच केवलम् । -त. सू०, अ० १०, सू०१
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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