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शंका १३ और उसका समाधान
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अर्थ - अपूर्ण रत्नत्रय अर्थात् शुभोपयोगवाले व्यक्ति के भाव मोक्षके उपाय रूप होते हैं । उस व्यक्ति जो कषायांश होता है, वह कर्म-बन्धकारक है, उसका पूर्ण रत्नत्रय ( व्यवहारचारित्र अंश) कर्मबन्धका कारण नहीं हूँ ।
अर्थात् अपूर्ण रत्नत्रयस्वरूप सरागसंयम या ( ५-६ ७वें गुणस्थानका ) पुण्य माचरण कर्मबन्ध के साथ कर्ममोक्षका भी कारण है ।
श्री देवसेन आचार्य भावसंग्रह
निर्जराका कारण हैं:
आवासयाई कम्मं विज्ञावच्चं य
दाणपूजाई । जं कुडू सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ॥ ६१०||
अर्थ-दृष्टि जो छ आवश्यक कर्म, वैयावृत्य, दान, पूजा बादि करता है, वे सब कार्य कमकी निर्जराके कारण हूँ |
श्री परमात्मप्रकाशकी टीकामें श्री ब्रह्मदेवसूरि लिखते हैं
यदि निजशुद्धात्मैवापादेय इति मत्वा तत्साधकत्वेन तदनुकूलं तपश्चरणं करोति, तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा परस्पराचा मोक्षसाधकं भवति, नो चेत् पुण्यकारणं तत्रैवेति ।
-- अ० २ गा० १९१ की टीका अर्थ-यदि निज 'शुद्ध आत्मा ही उपादेय है, ऐसा मानकर उसके साधकपने से उसके अनुकूल तप करता है और शास्त्र पढ़ना है तो वह परम्परासे मोक्षका ही कारण है, ऐसा नहीं कहना चाहिये कि वह केवल पुण्यबन्धका ही कारण है ।
ये निदानरहितपुष्यसहिताः पुरुषास्ते भवान्तरे राज्यादिभोगे लब्धेऽपि भोगांस्तयक्त्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा चोध्वगतिगामिनो भवन्ति ।
- अ० २ गा० ५७ की टीका
भव में राजादिके भोग पाकर भी उन
अर्थ – जिन पुरुषोंने निदानरहित पुण्यबन्ध किया है वे दूसरे भोगोंको छोड़कर बलदेव आदिके समान जिनदोक्षा ग्रहण कर मोक्षको जाते हैं ।
उभयभ्रष्टता
यदि पुनस्तथाविधावस्थामलभमाना ( निर्विकल्पसमाध्यलभमाना अपि सन्तो गृहस्थावस्थायां दानपूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां षडावश्यकादिकं च व्यस्वोभयभ्रष्टाः सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम् ।
- अ० २ दोहा ५५ की टीका
अर्थ — जिसने उस प्रकारकी अवस्थाको प्राप्त नहीं किया निर्विकल्प समाधि प्राप्त नहीं को है ) वह यदि गृहस्थ अवस्था में दान, पूजा आदि छोड़ देता है और मुनि अवस्था में षट् आवश्यकको छोड़ देता हूँ तो वह दोनों ओरसे भ्रष्ट हैं और वह दूषण हो है ।