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शंका १३ और उसका समाधान
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इस आगम वचन द्वारा जो मोहके क्षय और धानावरण-दर्शनावरण-अन्तरायके क्षयसे केवलज्ञान बतलाया है उसमें उक्त प्रमाणकी संगति कैसे बैठ सकती है।
वीतराग अन्तरंग - बहिरंग परिवहरहित केवल भगवान् अनुमान पर पदार्थ स्वामी नहीं है। फिर भी उन्हें तीन लोकका स्वामी कहा गया है सो क्या यह निश्चय कथन है या मात्र लोग लोक प्राणियां श्रद्धाभाजन होनेसे उनमें तोन लोकके अधिविका उपचार हैं, विचार कीजिये । स्पष्ट है कि इस उपचरित अधिपतित्वका कारण ही उम सर्वातिशायी पुष्पको कहा गया है।
सम्पदृष्टि जोके भेदविज्ञानको जागृति साथ पापविरक्ति तथा शुभप्रवृति होती है। यतः यह निश्चयधर्मका सहचर हूँ । अतः हम व्यवहार धर्मस्त्ररूप पुण्याचरणका उपदेश आगम में दिया गया है पर पुण्य मोक्षका हेतु नहीं है। मोक्षका हेतु तो वह वीतरागता है जो पुण्यभावके साथ चल रही है। अतः परमार्थमे gor और पापको बन्धका तथा वीतराग भावको मोक्षका कारण मानना यथार्थ है ।
समयसार गाथा १४५ का प्रमाण हमने देकर यह सिद्ध किया था कि वह सुशील कैसे हो सकता है। जो शुभ कर्म जीवको संसार में प्रवेश कराया है। गाथा अभिप्रायको ठीक कर इसे पुण्य
पोषक बतलाया गया है जो असंगत है। गाथा के उत्तरार्धका सीधा अन्वय है कि :
'वत् संसारं प्रवेशयति कथं तत् सुशी भवति' अर्थात् जो जीवको संसारमें प्रवेश करता है उसे कैसे कहें। टीका भी गाय अनुरूप ही है, टीकाके अर्थ करनेमें विपर्यास हुआ है
इतना ही संकेत मात्र हम यहाँ करना चाहते हैं उसे जागेको गाथा १४६ और १४७ के प्रकाश देखें तो सब स्पष्ट हो जायगा । गाथा १४७ की टीका में यह स्पष्ट बतलाया है किकुशीलमाशुभकर्म सह रागसंगी प्रतिषिद्धी अर्थ- कुशलस्वरूप शुभ और अशुभ कर्मोोंके साथ
हेतु है।
हेतुत्वात् ।
राग और संसर्गका निषेध है, क्योंकि वे ब
कुन्दकुन्दस्याने समयसार जी की दृष्टिसे पुण्य पापको समानता इनमें स्पष्ट रूपसे बताई है। तब 'पुष्फला अहंता' का अर्थ दण्डी कुन्दकुन्दस्वामीने प्रवधनसार में किस गरी दिखा है यह विवेकियोंके ज्ञान में सहज ही आ जायगा । पुण्यका त्याज्यपना इसी दृष्टिसे आगम में प्रतिपादित है और पुण्यके साथ होने बाबा और लक्ष्य देकर पुण्यको उपचारसे उपादेय भी पाया गया है। दोनों दृष्टिय प्यान में लेने पर कोई विशेष नहीं रह जाता।
यदि उक्त प्रदन] पुण्यावरू शुभाशुभ कर्म और शुभाशुभ परिणामते अभिप्राय नहीं है, किन्तु 'चरण से है जैसा कि प्रतिका २ में लिखा है तो पुष्यका अर्थ यहाँ 'क' समझा गया और पवित्रा चरणका अर्थ पुण्यपापमल रहित वीतराग भाव हो हुआ सो वीतराग भावका फल 'अरहन्त पद' है, ऐसा मानने में कोई आपति नहीं है पर मूल प्रश्न में पुण्याचरण शब्द नहीं या 'पुण्य' शब्द था, अतः उसकी मीमांसा । की गई थी। वीतराग भाव वाचरण ही सर्वत्र सिद्धिका कारण है यह प्रतिशंकामे प्रयुक्त उदाहरणों से भी स्पष्ट है। प्रतिशंका २ के बत निष्कर्ष निकालते समय यह बात लिखते हुए कि 'शुभपरिणाम संदरनिर्जराका भी कारण है, वह भी स्वीकार कर लिया गया है कि जितना शांत है उससे सुभाखव-बंध होता है तथा जितना निवृति अंश है उससे संगर- निर्जरा होती है। इस निष्कर्षमें ही जब शुभ रागाको बंधमा लिया गया है सब यह प्रश्न स्वयं प्रश्न नहीं रह जाता।