SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय दौर शंका १३ पुण्यका फल जब अरहंत होना तक कहा गया है (पुण्यकला अरबंता प्र० सा० ) और जिससे यह आत्मा तीन लोकका अधिपति बनता है उसे सर्वातिशायी पुण्य बतलाया है, ( सर्वाति शायि पुण्यं तत् त्रैलोक्याधिपतित्वकृन् ) तब ऐसे पुण्यको हीनोपमा देकर त्याज्य कहना और मानना क्या शास्त्रोक्त है ? प्रतिशंका ३ यह प्रश्न जीवके पुण्य भावको अपेक्षासे है। इस बातको हमने अपने द्वितीय प्रपत्र में हार कर दिया या तथा यह भी स्पष्ट कर दिया था कि शुभोनयोग, पुण्यभाव पबहार धर्म एवं व्यवहार चारित्र-ये एकार्थवावी शब्द है । फिर भी आपने पुण्यरूप व्यकर्मको अपेक्षासे हो उत्तर प्रारम्भ किया है। द्रश्यकर्मकी अपेक्षा से स्पष्टीकरण अस्त किया जायगा। प्रथम तो जीवके भावकी अपेक्षासे स्पष्टीकरण किया जाता है। आपने लिखा है कि 'सम्यग्दृष्टि जीवके भेदविज्ञानको जागृति के साथ-साथ पापसे विरक्ति तथा शुभप्रवृत्ति होती है।' इस मिथित अखण्ड पर्यायका नाम शुभोपयोग है। इसमें प्रशस्त राग भी है तथा सम्यक्व व पापोंसे विरक्तिरूप चित्तको निर्मलता भी है। श्री पंचास्तिकाय गाथा १३१ की टोकामे शुभभावका यह हो लक्षण दिया गया है: यत्र प्रशस्तरागश्चितप्रसादश्च तत्र शुभपरिणामः। अर्थ-जहाँ प्रसस्त राग तथा चित्तप्रसाद है वहीं शुभ परिणाम है । यह टोका मूल गाथाके अनुरूप ही है। मूल गाथामें भी 'चित्तप्रसाद' दिया है। चित्तप्रसादका अर्थ चित्तको स्वच्छता, उज्वलता, निर्मलता, पवित्रता प्रसादका अंग्रेजी में भो अर्थ Purity किया है। यह निमलता पापांसे विरक्ति आदि रूप ही तो है । श्री प्रवचनसार गाथा में भी कहा है कि जिस समय जीव अराभ, शुभ या शुद्ध रूप परिणमता है उस समय वह अशुभ, शुभ या शुभ है। अर्थात् एक समयमें एक ही माव होता है और उस समयकी अखण्ड (पूर्ण) पर्यायका नाम ही अशुभ, शुभ या शुद्ध भाव है। अतः यह सिद्ध हो जाता है कि सम्यग्दृष्टिले मात्र समांशका नाम शुभ भाव नहीं है किन्तु उसकी मिश्रित अखण्ड पर्माय ही का नाम शुभ भाव है। उसमें रागांशसे बंध और निर्मल अंशसे संबर-निर्जरा होते हैं। उस शुभ भाव वा व्यवहार धर्म में भी लक्ष्य या ध्येय वीतरागता एवं शुद्ध अवस्था अर्थात् मोक्ष को प्राप्ति हो रहती है। पर्यायकी निवसता के कारण वह जोव वीतरागता में स्थित नहीं हो पाता है। इस कारण उसको राग व विकल्प करने पड़ते हैं, किन्तु उस राग या विकल्प द्वारा भी वह वीतरागताको ही प्राप्त करना चाहता है। जैसे पं० श्री दौलतरामजोने कहा है संयम घर न सके संयम धारणकी उर घटापटी।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy