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________________ का १३ और लमका समाधान जो जिस वस्तु का इच्छुक होता है वह उसी वस्तुके पारो की श्रद्धा, ज्ञान न पूजादि करता है । जैसे धनुर्विद्याका इच्छुक धनुर्वेद के विशेषज्ञका तथा धनार्थी राजा आदिका श्रद्वान, मान व पूजासत्कारादि करता है । कहा भी है यो हि यत्प्राप्त्यर्थी सः तं नमस्करोति यथा धनुर्वेदप्राप्यर्थी धनुर्विदं नमस्करोति । इसी प्रकार वह व्यवहार सम्यग्दृष्टि वोतरागताकी प्राप्तिका इच्छुक होनेसे वीतराग देव, वीतराग गुरु और वीलरागताका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंका ही श्रद्धान, ज्ञान एवं पुजा, सत्कार, सेवा आदि करेगा। जैसे धनवेदक विशेषज्ञ या राजादिको पूजा सत्कारादि घनविद्य! या धनकी प्राप्ति साधक निमित्त कारण है, उमी प्रकार वातराग देशदिको पूजादि भी वीतरागता प्राप्त करने में साधक निमित्त कारण है । अर्थात् धीतराग देवादिकी पूजादि रूप आचरण वीतरागताके ही कारण है । श्रोतगग देवके गुणोंमें जो उमका अनुराग है, वह उन गृणों की प्राप्तिके लिये ही है । कहा भी है-'वन्दे शष्ट्गुणलव्यये' अर्थात् उन गुणोंकी प्राप्तिके लिये हो वन्दना करता हूं। उसका यह भाव नहीं कि मैं सदा इसी प्रकार बना रहूँ। किन्तु वह उसी समय तक पूजादि करता है जब तक वह स्वयं वीतरागी नहीं बन जाता है। जैसे धनुविद्याका इच्छुक उसी समय तक गुरुका आश्रय लेता है जब तक वह स्वयं धनुर्वेद विशेषज्ञ नहीं बन जाता है। कहा भी है भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवनि तादृशः । वर्तिदीपं यथोपास्य भिन्ना भवति ताशी ॥ १७ ॥ -समाधिशतक अर्थ-यह जीव अपनेसे भिन्न अर्हन्त-सिद्धस्वरूप परमात्माकी उपासना करके उन्हीं के समान अहन्त-सिद्धरूप परमात्मा हो जाता है। जैसे कि बत्ती, दीपकसे भिन्न होकर भी, दीपककी उपासनासे दीपकस्वरूप हो जाती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भगवान की उपासना पासकको भगवान ही बना देती है। परमपं जाणतो जोई मुञ्चेइ मलबलोहण । णादियदि णवं कम्मं शिद्दिष्टुं जिणवरिंदेहिं ॥४॥ -मोक्षपाहुड अर्थ :-जो योगी परमात्माको ध्यावता संता वर्ने है सो मलक. देनहारा जो लोभकषाय ताकरि छूटे है और नवीन कर्मका आश्रय न होय है-ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है अर्थात परमात्माके ध्यानसे संवर तथा निर्जरा होती है एवं लोभके छुट जाने पर केवलशान स्वयं प्राप्त हो जाता है। श्री प्रवचनसार गाथा ८० में भी कहा है: जो जाणदि अरहंत दग्वताणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अग्याणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।।८।। अर्थ-जो अरहन्तको द्रव्यपने, गुणपने और पांघाने से जानता है वह अपनी आत्माको जानता है और उसका मोह अवश्य लय (नाश) को प्राप्त हो जाता है। जैसे कोई पुरुष धन कमाने के लिये कोई व्यापार शुरू करता है । उस व्यापार में जो कुशल है ससका आश्रय भी लेता है और दुकान पर आवश्यक व्यय (खर्च) भी करता है। किन्तु इस प्रकार व्यय करवे, कई
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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