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________________ शंका ६ और उसका समाधान ४३९ आचार्मोने प्रमाणदृष्टि से केवल द्रव्यप्रत्यासत्तिको उपादान कारण न मानकर अनन्तर पूर्व पर्याय युक्त द्रव्यको उपादान कारण स्वीकार किया है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए तत्वार्थश्लोकवार्तिक .६६ में लिखा है पर्यायविशेषाग्मकस्य द्रव्यस्योपादानस्वातीतेः, घटपरिणमनसमर्थपर्यायात्मकमृदयस्य घटोपादानस्ववत् । पर्यायविशेषात्मक द्रव्यमें ही उपादानता प्रतीत होती है, घट परिणमनमें समर्थ पर्यायात्मक मिट्टी द्रव्यमें धठकी उगादानताकै समान । यह आगमवचन है। इसमें द्रब्ध-प्रत्याराप्तिके समान पर्यायपत्यासत्तिमें भी उपादान कारणता स्वीकार की गई है, केबल द्रव्यप्रत्याससिमें नहीं । फिर नहीं मालम कि अपर पक्ष केबल द्रव्यप्रत्यासत्तिमें ही उपादान कारणता कैसे स्वीकार करता है, यदि उस पक्षका कहना हो कि जिस समप विवक्षित कार्य होता है, द्रव्यप्रत्याससि तो उसी समयकी ली गई है, पर्यायरत्यासति के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। इस पर हमारा कहना यह है कि प्रत्या मानका अर्थ दी जा 'अति संनिकट होना' है ऐसी अवस्थामें पर्यायप्रत्यासत्तिका अर्थ ही विवक्षित कार्यको अनन्तर पर्व पर्याय ही होगा, अन्य नहीं । और यही कारण है कि आगममें सर्वत्र अनन्तरपूर्व पर्याय मुक्त उध्यको ही उपादान कारण कहा है। इस विषयका विशेष विचार अष्टसहस्री पृष्ठ २१० में विस्तार के साथ किया है। वहाँ लिखा है असाधारणद्रव्यप्रत्याससिः पूर्वाकारमशनविशेषमत्यासतिरेव च निवन्धनमुपादानवस्य स्वीपादेयं परिणाम प्रति निश्चीयते। असाधारण द्रव्यप्रत्यासत्ति और पूर्वाकार भावविशेषप्रत्यासत्ति ही उपादानपनेका कारण होकर अपने उपादेय परिणामकै प्रति निश्चित होती है। आगे इसी विषयको स्पष्ट करने के अभिप्रायसे आचार्य विद्यानन्वने उक्त सिद्धान्तके समर्थनमें 'तदुक्त' लिखकर दो श्लोक उद्धृत किये है। जो इस प्रकार है त्यहाश्यात्मरूपं भरापूर्वण वर्तते । कालप्रयेऽपि सद् दन्यमुपादनमिति स्मृतम् ॥ ___ जो द्रव्य तीनों कालों में अपने रूपको छोड़ता हुआ और नहीं छोड़ना हुआ पूर्वरूपसे ओर अपूर्वरूपसे वर्त रहा है वह उपादान कारण है ऐसा जानना चाहिए । यहाँ पर ब्यको उपादान कहा गया है। उसके विशेषोपर ध्यान देनेसे विदित होता है कि द्रव्य का न तो केवल सामान्य अंश उपादान होता है और न केवल विशेष अंश उपादान होता है। किन्तु सामान्यविशेषात्मक द्रव्य ही उपादान होता है। द्रव्यक ग्रेवल सामान्य अंशको और केवल विशेष अंशको उपादान मानने में जो आपक्तियां आती है उनका निर्देश स्वयं आचार्य विद्यानन्दने एक दूसरा श्लोक उद्धत करके कर दिया है। वह बलोक इस प्रकार है थन् स्वरूप त्यजत्येव यम्न त्यजति सर्वथा । तन्नीपादानमर्थस्य क्षणिक शाश्वतं यथा ।। जो अपने स्वरूपको छोड़ता ही है, वह ( पर्याय ) और जो अपने स्वरूपको सर्वथा नहीं छोड़ता वह ( सामान्य ) अर्थ (कार्य) का उपादान नहीं होता। जैसे क्षणिक और शाश्वत ।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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