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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा यद्यपि सर्वथा सणिक और सर्यथा शाश्वत कोई पदार्थ नहीं है। परन्तु जो लोग पदार्थको सर्वथा सणिक मानते हैं उनके यहाँ जैसे सर्वथा क्षणिक पदार्य कार्यका उपादान नहीं हो सकता और जो लोग पदार्थको सर्वथा शाश्वत् मानते है उनके यहाँ जैसे सर्वथा शाश्वत् पदार्थ कार्यका उपादान नहीं हो सकता उसी प्रकार द्रश्यका केवल सामान्य अंश कार्यका उपादान नहीं होता और न केवल विशेष अंश कार्यका उपादान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
इस प्रकार पूर्वोक्त समग्र कथनपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि फेवल द्रव्यप्रत्यासत्ति और केवल पर्यायप्रत्यारात्ति उमादान कारणरूपसे स्वीकृत न होकर ट्रव्य-पर्यायप्रत्यासत्तिको ही उपादानकारण आचार्योने स्वीकार किया है। हम अपने पिछले उत्तरों में प्रमेयकमलमार्तण्ड पुच्च २००से 'यच्चोच्यतेशक्तिनित्यानित्या वेत्यादि ।' इत्यादि वचन उद्धृत कर यह सिद्ध कर आये हैं तथापि अपर पचनं पुनः उसी प्रपनको उठाया है, इसलिए यहाँपर इस विषयका पुनः विचार किया गया है।
हम यह मानते हैं कि आगम ग्रन्थों में स्वतः परिणामसमर्थ दूधयको अनुग्रहाकांक्षी लिखा है और इस अपेक्षाको ध्यान में रखकर व्यवहारमयसे सापेश्चताका भी उल्लेख किया गया है। निश्चय नयसे विचार करनेपर तो विदित होता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणामस्वभाव है और परनिरपेक्ष होकर परिणमता है। इससे यह निश्चय हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्यमें प्रत्येक समयका कार्य होता है तो स्वयं बसोके द्वारा ही होता है किन्तु जब वह कार्य होता है तब अन्य बाह्य जिस सामग्रीके साथ उसकी बाह्य व्याप्तिका नियम है उसमें असद्भुत व्यवहारनयसे कारण और कर्ता आदि धर्मोका उपचार किया जाता है। इस उपचारका जो प्रयोजन है उसका निर्देश हम पूर्व में कई बार कर आये है। प्रतीक्षा कोई किसीकी नहीं करता, अन्तरंग-बहिरंग सामसीका विलसा या प्रयोगसे सहज ही योग मिलता रहता है। ऐसी ही परसापेक्षता जनदर्शन में स्वीकार की गई है। अधीनतारूप परसापेक्षता जनदर्शन में स्वीकृत नहीं है, क्योंकि अधीनतारूप परसापेक्षताके स्वीकार करनेपर वस्तुव्यवस्था ही नहीं बन सकती।
एक बात और है । और वह यह है कि जैन-शास्त्रोंमें अनेक स्थलोंपर व्यवहारनयको मुख्यतासे यह भी कथन उपलब्ध होता है कि बाह्य सामग्नोके अभाव में बोला उपाधानकारण अपना कार्य करने में समर्थ नहीं है। जैसे तत्त्वार्थवातिक अध्याय ५ सय १७ में व्याख्या करते हुए यह लिखा है--
नैक एव मृपिण्डः कुलालादिवायसाधनसन्निधानेन बिना घटात्मनाचिर्मचिनु समर्थः ।
तो यह कथन निश्चय उपादामकी अपेक्षा न होकर व्यवहार उपादानको लक्ष्यमें रखकर ही किया गया है, क्योंकि उक्त उल्लेखमें दो बार उपादान कारणका निर्देश किया गया है। प्रथम बार तो मृत्पिण्डः घटकायपरिणामप्राप्ति प्रति गृहीताभ्यन्तरसामध्यः' इन शहदों द्वारा किया गया है और दूसरी बार 'मृपिपडः' मात्र इतना ही कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि प्रथम बार निश्चय उपादानको सूचित कर यह वतलाया गया है कि विवक्षित कार्यके निश्चय उपादानके होने पर बाह्य सामग्री होती ही है तथा व्यवहार उपादानके काल में विवक्षित कार्यको बाहा-आम्यंतर सामग्री नियमसे नहीं होती। अतः प्रत्येक कार्यमें बालाम्यन्तर सामग्रीकी समग्रता नियमसे होती है यह सिद्ध होता है। परमागम में जीव-पुद्गलोंकी गति-स्थितिके निमित्तरूपसे धर्म और अधर्मद्रव्यको स्वीकार करनेका यही कारण है । इसके विशेष खुलासाके लिए तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृष्ठ ६८ का यह कयन अवलोकनीय है।
तत एकोपादानस्य लाभे नोत्तरस्य नियतो लामा, कारणानामवश्यं कार्यवस्वाभावात् । समर्थस्य कार्यवस्वमेवेति चेन्न, तस्येहाविवक्षितत्वात् । तद्विवक्षायां तु पूर्वस्य लाभे नोत्तरं भजनीयमुच्यते, स्वय