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________________ ADHANTM - शंका ६ और उसका समाधान ४४१ मविरोधात् । इति दर्शनादीनां विरुद्धधर्माध्यासाविशेषेप्युपादानोपादेयभाषादुसरं पूर्वास्तितामियतं, न तु पूर्व मुत्तरास्तित्वगमकम् । इसलिए ही उपादानको प्राप्तिसे उत्तरको प्राप्ति नियल नहीं है, क्योंकि कारण नियमसे कार्यवाले महीं होते। शंका-समर्थ कारण कार्यवाला होता ही है ? समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि उसकी यहाँ पर विवक्षा नहीं है। उसकी विवक्षा होने पर तो पूर्वको प्राप्ति होने पर उत्तर भजनोय नहीं कहा जाता, क्योंकि स्वयं अविरोध है। इस प्रकार दर्शनादिकके विरुद्ध धर्माध्यानको अविशेषता होने पर भी उपादान-उगाइयभाव होनेसे उत्तर पूर्वके अस्तित्व पर नियत है, परन्तु पूर्व उत्तरके अस्तित्वका गमक नहीं है। यह आगमत्रचन है। इसमें जहाँ व्यवहार अपादानको चर्चा को है यहाँ निश्चय उपादानका भी निर्देश किया है। अनन्तर पूर्व पर्याययुक्त द्रश्यका नाम हो निश्चय उपादान है। ऐसी अवस्थामें पहुंच जहाँ यह विवक्षित उपादेयका गमक नहीं होता यहाँ ऐसी अवस्था में पहुंचने पर वह अपने उपादेयका मियमसे मिनामक होता है वह उक्त कपनका तात्पर्य है । उपदिय तो अपने उपादानका गमक होता ही है, उपादान भी अपने उपादेयका नियामक होता है ऐसा अभिप्राय यहाँ समझना चाहिए। यही कारण है कि आचार्य विद्यानन्दिने अपने त स्वार्थश्लोकयातिक पृ० ६४ में उभयावधारणका निर्देश करते हुए यह वचन कहा है निश्चयनयात् भयावधारणमपीएमेव, अनन्तरसमयनिर्वाणजननसमर्थानामेव सदर्शनादीनां मोक्षमार्गस्वीपपरोः परेषां अनुकूलमार्गताध्यवस्थानात् । एतेन मोक्षस्यैव भार्गो मोक्षस्य मार्ग एवेस्युभयाघवधारणमिष्टं प्रत्यायनीयम् । निश्चयनयसे तो उभयतः अवधारण करना इष्ट ही है, क्योंकि अनन्तर समयमें निर्वाणको उत्पन्न करने में समर्थ ही सम्यग्दर्शनादिककै मोक्षमार्गपनेकी उत्पत्ति होनेसे दूसरों के अनुकूल मार्गपनेकी व्यवस्था होती है । इससे मोशका ही मार्ग है या मोक्षका मार्ग ही है इस प्रकार उभयतः अवधारण करना इ है ऐसा निश्चय करना चाहिए। इस कथनसे चार बातोंका स्पष्ट शान हो जाता है १. अनन्तर पूर्व पर्याय युक्त द्रव्य निवमसे अपने कार्यका नियामक होता है और उससे जायमान कार्य उसका नियमरो गमक होता है। यह निश्चम' उपादान-उपरादेयकी व्यवस्था है। २. इसके पूर्व वह उस कार्य का ध्यवहार उपादान कहलाता है । यह विवक्षित कार्यका नियामक नहीं होता, क्योंकि व्यवहारनयसे ऐसा कहा जाता है। जैसे मिट्टीको घटका उपादान कहना यह व्यवहारनयका वक्तव्य है। परन्तु उस मिट्टीसे, जिसे हमने घटका उपादान कहा है, घट बनेगा ही ऐसा निश्चय नहीं । यह द्रव्यशक्ति को लक्ष्यमें रखकर कहा गया है, घटकी अनन्तर पूर्व पर्याययुक्त द्रव्यको लक्ष्यमें रख कर नहीं। ३. निश्चय उपादानके अपने कार्यके सन्मुख होने पर कार्यकाल में तदनुकूल बाह्य सामग्रोका वित्र सा या प्रयोगसे योग मिलता ही है। ४. व्यवहार उपादान कुछ विवक्षित कार्यका निश्चय उपादान नहीं होता, इसलिए वह प्रत्येक ५६
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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