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________________ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा समयमें जिस जिस कार्यका निश्चय उपादान होता जाता है उस उस कार्यको करता है और उस उस समय में बाह्य सामग्री भी उस वस कार्यके अनुकूल मिलती है। और इस प्रकार क्रमसे उसके विवक्षित कार्यको अपेक्षा निश्चय उपादानको भूमिकामें आने पर वह नियमसे विवक्षित कार्यको जन्म देता है तथा प्रयोग से या विनसा उसके अनुकूल बाह्य सामग्री भी उस फार्यके समय उपस्थित रहती है। ये कार्यकारणभावके अकाट्य नियम है जिनका आगम में यत्र-तत्र विस्तारके साथ निर्देश किया गया है। इसके लिए तत्त्वार्यश्लोकवातिक पृ०७१ का न हि द्वयादिसिइक्षणः' इत्यादि कथन अवलोकन करने योग्य है। इस कथन में व्यवहार उपादान और निश्चय उपादान इन दोनोंका सुस्पष्ट शब्दोंमें विधेचन किया गया है। यदि अपर पक्ष इस कथनके आधारसे पूरे जिनागमका परामर्श करनेका अनुग्रह करे तो उसे वस्तुस्थितिको समझने में कठिनाई न जाय । इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उपादान कारणको केवल दृश्यप्रत्यासत्तिरूप न स्वीकार कर असाधारण द्रध्यप्रत्यासत्ति और अनन्तर पूर्व पर्यायरूप प्रतिविशिष्ट भावप्रत्यासत्ति इन दोनों के समवायको हो उपादान कारणरूपसे स्वीकार किया है। यह निश्चय उपादानका स्वरूप है, अन्य नहीं । पूरे जिनागमका भी यही अभिप्राय है। ५. बाह्य सामग्नो दूसरेके कार्यका यथार्थ कारण नहीं अपर पक्षने अपनी प्रतिशंकामें मह मी लिखा है कि 'क्या जो वस्तु स्वयं कार्यरूप परिणत म होकर कार्यरूप परिणत होनेवाली अन्य वस्तुको कार्यरूपसे परिणत होने में सहायक होती है अर्थात् निमित्तकारण होती है उसमें कार्यके प्रति द्वन्यप्रत्यासत्तिरूप कारणताका लो अभाव ही पाया जाता है, क्योंकि वहाँ पर काररूप धर्म तो अन्य वस्तुमें रहा करता है और कारणरूप धर्म अन्य वस्तु, ही रहा करता है। तब ऐसी स्थितिम वन कार्यभूत और कारणभूत दोनों वस्तुओंमें कालप्रत्यासत्तिके आधार पर ही कार्यकारणभाव स्वीकार किया जा सकता है, द्रव्यप्रत्यात्तिक रूपमें नहीं । अर्थात् जिसके अनन्तर जो अवश्य ही उत्पन्न होता है और जिसके अभावमें जो अवदय ही उत्पन्न नहीं होता है ऐसा कालप्रत्यासत्तिरूप कारणताका लक्षण ही वहाँ पर घटित होता है ।' आदि । यह अपर पक्षका बक्तव्य है। इसमें जो यह स्वीकार किया गया है कि एक दृष्यके कार्यका कारण राहकारी सामग्री में ही रहा करता है सो यही सहा पर मख्यरूासे विचारणीय है। आचार्य विद्या. नन्दिने बाह्य सामग्रीको कारण व्यवहारनयसे कहा है। वै तत्त्वार्थश्लोकवातिक अ० ५० १६ पृ० ४०६ में लिखते है धर्मादयः पुनराधेयास्तथाप्रतीते: व्यवहारनपाश्रयणादिति । परन्तु धर्मादिक द्रव्य आधेय है, क्योंकि व्यवहारनयसे वैसी प्रतीति होती है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका स्वामी व्यवहारमयसे है इस बातका निर्देश करते हुए तत्वार्थवातिक अध्याय १ सूत्र ७ में लिखा है व्यबहारनयवशात् सर्वेषाम् । ७ । जीवादीनां सर्वेषां पदार्थानां व्यवहारनयवशाजीवः स्वामी । व्यवहारनयसे सबका स्वामी है ॥७॥ जीवादि सब पदार्थों का व्यवहारमयसे जीव स्वामी है ।। आगे उसी सूत्रको व्याख्या में नहारनयरो साधनका निर्देवा करते हए लिखा है
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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