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________________ शंका ६ और उसका समाधान भोपशमिकादिभावसावनइच व्यवहारतः ।९। व्यवहारनयवशात् औपरामिकादिभावसाधनश्चेति म्यपदिश्यते । चशम्नेन शुक्रशोणिताहारादिसाधनइच ।। व्यवहारनयसे औपशमिक आदि भाबसाधनवाला जीव है ।। व्यवहारमयसे औपशमिक आदि भावसाधनधाना जोब कहा जाता है। वातिकमें पठित 'च' झन्दसे दशक शोणित और आहारादि सामनवाला जोव है ऐसा यहाँ जानना चाहिए। इस प्रकार जहां-उहाँ आगममें अन्य द्रव्यको निमित्त, हेत, आलम्बन, प्रत्यय, उदासोनकारण और प्रेरककारण कहा है वहाँ सर्वत्र वह कथन व्यवहारनय अर्थात् असद्भुत ध्यवहारनय या उपचारितासद्भूत व्यवहारनयको अपेक्षासे ही किया गया है ऐसा यहां जानना चाहिए। इसका विशेष खुलासा हम इसी उत्तरमें पहले कर आये है । इमलिए एक-द्रव्यके कार्यका कारण धर्म दूसरे द्रव्यमें यथार्थरूपमें रहता हो यह तो कभी भी संभव नहीं है। आचार्य विद्यानन्दिने कार्यके साथ जो सहकारी कारणों को काल. प्रत्यासत्ति स्वीकार की है तो उसका आशय इतना ही है कि जिस बाह्य-सामग्रीमें प्रयोजन-विशेषको ध्यान में रखकर कारण व्यवहार किया जाता है उसका उस कार्य के साथ एक कालमें होनेका जैसे जब जीवके क्रोध परिणाम होता है उस समय क्रोध नामक द्रव्यकर्मका उदय नियमसे होता है। यही यहाँपर कालत्यामत्ति जाननी चाहिये । ऐसी कालप्रत्यासत्ति राम भोक सब कार्यो में उस-उस कार्यको बाह्य-सामग्रोके साथ नियमसे पाई जाती है। इसमें कहीं किसी प्रकारका व्यत्यय नहीं पड़ता और इसीलिए हरिवंशपुराण सर्ग २५ में यह वचन उपलब्ध होता है भभ्यन्तरस्य सानिध्ये हेतोः परिणतशात । बाह्यो हेतुर्निमित्तं हि जगतोऽभ्युदयं क्षये ॥६॥ परिणतिके वशसे अभ्यन्तर हेतुकी निकटता होनेपर जगन्के अभ्युदय और अयमें बाह्य हेतु निमित्तमात्र है। यह वस्तुस्थिति है। यदि बाह्य-सामग्री में अन्य द्रव्यके कार्यको कारणता प्रथार्थ मानो जाती है तो उन दोनों की दो सत्ता न होकर एक सत्ता मानना अनिवार्य हो जावेगा, क्योंकि कोई द्रश्य और उसका गुण-धर्म अपनी सत्ताको छोड़कर दूसरे द्राप गौर उसके गुण-धर्मकी सत्तारूप त्रिकालमें नहीं होता, क्योंकि उन दोनोंका परस्पर में अत्यन्तामाव है । इसी तथ्यको लक्ष्यमै रहकर आचार्य कुन्दकुन्दने व्यवहारनयसे घट-पट आदिका कर्ता आत्माको स्वीकार करके भी यह कथन समीचीन क्यों नहीं है इसका निर्देश करते हुए समयसार गाथा ६९ में लिखा है जदि सो परदन्याणि य करिज मित्रमेण तम्मओ होज्ज । जम्हा ण तम्मओ तेण सो ण तेसिं हवदि कत्ता ॥९९|| यदि वह आत्मा पर द्रव्योंको करे तो नियममे वह परमयोके साथ तन्मय हो जाय । अतः तन्मय नहीं होता, इसलिए वह उनका कर्ता नहीं होता। अपर पक्ष यहाँपर यह कह सकता है कि परद्रव्य दूसरे द्रब्यके कार्यका उपादान कर्ता भले ही न हो, निमित्तकर्ता सो होता ही है। सो यहापर प्रश्न यह है कि जिसे अपर पक्ष निमित्तकर्ताक रूपमें वास्तविक मानता है उसकी वह क्रिया स्वयं अपने में होली है या अपनी सत्ताको छोड़कर जिसका वह निमित्तकर्ता कहलाता है उसमें होती है। अपनी सत्ताको छोड़कर कोई भी द्रव्य अन्य द्रव्य की सत्तामें प्रवेश करके उसके
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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