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________________ शंका १७ और उसका समाधान ८११ इस तरह हम देखते हैं कि विवक्षित कार्यके प्रति कार्यका आश्रय होने के कारण विकसित वस्तुमें विद्यमान उपादानकारणता जिस प्रकार वास्तविक है उसी प्रकार उसी विवक्षित कार्यके प्रति सहायक होने के कारण विवक्षित अन्य दस्तुमें विद्यमान निमित्तकारणता भो वास्तविक सिद्ध होती है। इससे यह बात निष्पन्न होती है कि जिस प्रकार अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखती हुई विवक्षित वस्तु विवक्षित कार्यके प्रति वास्तविक उपादान कारण है उसी प्रकार अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखतो हुई अन्य विवक्षित वस्तु भी उस विवक्षित कार्य के प्रति वास्तविक निमित्त कारण है । अब हम आपसे पूछना चाहते हैं उपादान बस्तुगत कारणताका निमित्तभूत बस्तुमें आरोप क्या आपको अभिष्ट है और यदि अभीष्ट भी है तो क्या संभव है । आगे इन्हीं प्रश्नोंपर विचार करना है। यह तो निर्विवाद है कि लोक में जिस प्रकार उपादानभूत वस्तुको कार्यरूप परिणति देखो जाती है उस प्रकार निमितभूत वस्तुको कार्यरूप परिणति नहीं देखी जाती। यही कारण है कि जैन संस्कृति में निगिनती मार्गरूप परिणाम नलों नीकार की गई है, इसलिये निमित्तभूत यस्तुमें एक तो कारणताका आरोप अभीष्ट नहीं हो सकता है, न वह आवश्यक है और न यह संभव हो है, वयोंकि आलापपद्धति अन्यके अनुसार एक वस्तुमें अथवा धर्मम दूसरी वस्तु अथवा धर्मका आरोप निमित्त जोर प्रयोजन रहते हए ही हो सकता है जो कि यहाँ घटित नहीं होता है, क्योंकि उपादानभूत वस्तुगत कारणताका आरोप निमित्तभूत वस्तु में करनेके लिये कोई निमित्त (कारण) नहीं है और न उस आरोपका कोई प्रयोजन ही रह जाता है । कारण कि विना आरोपके ही अभीष्ट सिक्षि हो जाती है। जब हम अध्यात्मको व्याख्याको पढ़ते और सुनते हैं तो वह केवल एक द्रव्यमें तादात्म्यसे स्थित सब धर्मोको स्वाश्रित होनेसे वास्तविक मानता है और जहाँ परकी अपेक्षा वर्णन किया जाता है तब उसे व्यवहारअवास्तविक एवं सरल भाषामें उपचरित शब्दसे कहा जाता है, किन्तु वस्तुत: जिस धर्मको उपादानकी दृष्टिसे उपादेय कहा जाता है वही धर्म निमित्तको अपेक्षा नैमित्तिक कहलाने लगता है। इस तरह एक हो उपादानका परिणमन दो रूप कहा जाता है, इसलिये उसे अध्यात्मकी भाषामें स्वपर प्रत्यय कहते है। जैसे जीवको नर-नारकादि पर्याय और मिट्टीको घट कपालादि पर्याप। इन्हें आगम भाषामें बंभाविक पर्यायें भी कहते है। इस तरह जब उपादान गत वह परिणमन उपादेय और नैमित्तिक उभमरूप है तब उपादानके व्यापार को बास्तविक और निमित्तके व्यापारको वास्तविक कसे कहा जा सकता है। जब कि उपादान और निमित्त दोनोंके वास्तविक व्यापारोंसे यह आत्मलाभ पाता है। आगे आपने जो निश्चय और व्यवहारकारक बतलाये है तथा अन्तर्याप्ति और बहिाप्तिका प्रतिपादन किया है वह भी मशः परस्पर सापेक्ष उपादान बौर निमित्तोंके पृथक्-पृथक् व्यापाराधीन है। अनेकान्तकी बस्तुव्यवस्था यही है अर्थात जिस समय उपादान कारक और अन्तयप्तिका लक्ष्य रहता है तब निमित्त कारक और बहियाप्ति गौण हो जाती है और इसी तरह जब निमिस कारक और बहियाप्तिका लक्ष्य रहता है तब उपादान कारक पोर अन्तयाप्ति गौण हो जाती है। वस्तुतः कार्यको उत्पत्ति में दोनों आवश्यक है और दोनों ही वास्तविक है। लोकमें भी दोनों ही प्रकारके वचन प्रयोग पाये जाते है । जैसे 'मिट्टोसे घड़ा बना है।' अथवा 'कुम्भकारने मिट्टी से घड़ा बनाया है. दोनों हो वचन प्रयोग लोकमें सत्यार्थका प्रतिपावन करते हैं।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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