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जयपुर ( खामिया ) तत्वचर्चा जैन तत्त्वज्ञान उभयनयसापेक्ष है । यह बात जुदी है कि कहीं निश्चयप्रधान कथन है और कहीं व्यवहार प्रधान कथन है। जहाँ निश्चय प्रधान कथन है वहाँ व्यवहारनयसे उसे समन्वित कर लेना चाहिये और जहाँ व्यवहारप्रधान कथन है वहाँ उसे निश्चयनयसे समन्वित कर लेना चाहिये। आचार्य अमतचन्द्र स्वामीके निम्नांकित वचन हमारे मार्गदर्शक है
उभयनयविरोधध्वसिनि स्थात्पदा
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चैरनबमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एष ॥१॥
-समयसार माधा १२ का कलश अर्थ-जो पुष्प उभयनयके विरोधको नष्ट करने वाले और स्यात पदसे चिह्नित जिनेन्द्र भगवान के यवनों में स्वयं मोह-मिथ्यात्व रहित होकर रमण करते हैं ये उत्कृष्ट तथा अमयपक्षसे अक्षुण्ण-मिथ्यानयोंके संचारस रहित उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप समयसारका-आत्माकी शुद्ध परिणतिका शोघ्न ही अवलोकन करते हैं।
शंका १७ उपचारका लक्षण क्या है ? निमित्त कारण और व्यवहार नयमें यदि क्रमशः कारणता और नयत्वका उपचार है तो इनमें उपचारका लक्षण घटित कीजिए?
प्रतिशंका २ का समाधान इस प्रश्न के पिछले समाधान में हम यह बतला आये है कि परके सम्बन्ध (याश्रय) से जो व्यवहार किया जाता है उसे 'उपचार' कहते है। इस लक्षाण आश्रयका अर्थ आधार मानकर वर्णादिमान् जीप:' इत्यादि उदाहरणों में आधाराधेयभाव नहीं है यह बतलाकर लक्षणका खण्डन किया है वह संगल नहीं है, क्योंकि वहाँ आश्रयका अर्थ 'सम्बन्ध' स्वयं लिखा गया है, माधार नहीं । उपचारका उक्त लक्षण 'वादिभान् जीवः' में घटित होने की बात स्वयं अमृतचन्द्र स्वामीने इलोक ४० में लिखी है जिसका उद्धरण हम अपने समाघानमें दे चुके हैं, अतः सुसंगत है।
उपचारका जो दूसरा लक्षण हमने किया है उसे ठीक बताते हुए भी प्रयोजनादि शाब्दमें 'आदि' शन्दसे और व्यवहार शब्दसे क्या अर्थ लिया गया है यह पच्छा की है और लिखा है कि 'इतनी बात आप स्पष्ट कर दें तो फिर हम आप उक्त लक्षणके सम्बन्धमें संभवतः एकमत हो सकते हैं, सो 'आदि' शब्दसे निमित्त लिया गया है, तथा व्यवहार शन्दके अर्थको समझने के लिये उसके पर्यायवाची नाम जो आगममें आते है के है-व्यवहार-आरोप-उपचार आदि । नोचे लिखे आगम वाक्यों में उपचार' शब्दका उपयोग आया है, जिससे उस हाब्दका अर्थ स्पष्ट हो जायगा । दिशोऽष्याकाशेऽन्तावः आदित्योदयायपेक्षया आकाशप्रदेशपक्तिषु इत इदमिति व्यवहारोपतेः।
-सर्वा० अ०५, सूत्र ३, टीका