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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा
कारणताका निमिमें आरोप किया जाता है और तब इसके आधारपर ही निमितको उपचारित कारण कह दिया जाता है। जैसा कि जैन तत्वमोमांसा' में उतनचक्रको निम्नलिखित गाथा वहाँ पर किये गये
अर्थसे फलित होता है
धंधे व मोक्स ऊ अग्णी वनहारो व नायव
च्छियो पुण जीवो मणिश्री खलु सम्वदरसीहिं ।। २३५।।
इस गाथाका जो अर्थ 'जैन तस्वमीमांसा' में दिया है वह निम्न प्रकार है
यहाँ पर विचारना यह है ठीक है? तो इस पर हमारा आता है कि गाया में पथित अन्य
व्यवहारसे ( उपचारसे ) बन्ध और मोक्षका हेतु अन्य पदार्थ ( निमित्त ) को जानना चाहिये, किन्तु निश्चय ( परमार्थ ) से यह जीव स्वयं बन्धका हेतु है और यही जीव स्वयं मोक्षका हेतु है ||२३५|| कि जो यह अर्थ गायाका 'जैन तत्वमीमांसा' में दिया गया है क्या वह कहना है कि वह अर्थ ठीक नहीं है। कारण कि हमारी समझमें यह नहीं शब्दका अर्थ यहाँ निमिस किस आधारपर किया गया है। इसमें नहीं कि यदि गायाने निमित्तका विरोधी उपादान शब्द होता तो उस हालत में अन्य शब्दका 'निमित्त' अर्थ परन्तु जब गाथामें उपादान शब्द न होकर जीन शब्द पाया जाता है तो इससे अन्य शब्दसे जीवके प्रति कर्म तथा नोकर्मको हो प्रण करना चाहिये। कर लें तो फिर गाथा में पठित 'ववहारदो' मोर 'शिच्छवदो' शब्दोंके अर्थ मो इस तरह गाथाका जो अर्थ हमारी दृष्टिसे हो सकता है वह इस प्रकार होगा— 'बन्ध और मोक्षमें जीव निश्चयनयसे कारण होता है अर्थात् उपादान कारण होता है और जीवसे अन्य – कर्म नोकर्मरूप पदार्थ व्यवहारनयसे कारण होते हैं अर्थात् निमित्त कारण होते हैं।
करना अनुचित नहीं था, स्पष्ट हो जाता है कि वह यदि यह तय आप स्वीकार आपको दृष्टिगत करने होंगे।
अब आप अनुभव करेंगे कि बन्ध और मोक्षके प्रति इस गाथाके द्वारा जीव तो उपादान कारणता स्थापित की गई है । और कर्म तथा नोकर्म में निमित्तकारणता स्थापित की गईं हैं। इस बासको प्रकट करनेके लिए यहाँ पर निश्चय ( स्वाश्रित ) नय व व्यवहार ( पराश्रित ) नवका प्रयोग किया गया है। बाप व्यवहारका उपचार अर्थ करके निमित्तकारणमें असत्यता सिद्ध करनेका प्रयत्न करते है यह संगत नहीं मालूम होता | क्योंकि एक वस्तुका वस्तुत्व उपादान नहीं है कोर दूसरी वस्तुका वस्तु निमित्त नहीं है किन्तु अपने स्वतन्त्र वस्तुत्वको रखते हुए विवक्षित वस्तु विवक्षित कार्यके प्रति आयय होनेडे उपादान कारणता है और अपने स्वतन्त्र वस्तुको रखती हुई अन्य विवक्षित वस्तुमें सहायक होनेसे निर्मित कारणता है। निमित्त और उपादान कारणों वर्ष पर यदि ध्यान दिया जाय तो एक वस्तुमे उपादानताका वास्तविक रूप क्या है ? और दूसरी वस्तु निमित्तका वास्तविक रूप क्या है ? यह अच्छी तरह समझ में आजाता है। इनका व्युत्पत्यर्थ निम्न प्रकार है
उपसर्गपूर्वक आदानार्थक 'बा' उपसर्ग विशिष्ठ
'उपादीयतेऽनेन' इस विग्रहके आधारपर 'उप' 'दा' धातुसे कर्त्ता में ल्युट् प्रत्यय होकर उपादान शब्द निष्पन्न हुआ है। इस तरह जो वस्तु विवक्षित परिणमनको स्वीकार करे या ग्रहण करे अथवा जिसमें परिणमन निष्पन्न हो वह वस्तु उपादान कहलाती है इसी प्रकार 'निमेषति' इस विग्रहके आधारपर 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'मिद्' धातुसे भो अर्थ 'क्त' प्रत्यय होकर निर्मित शब्द निष्पक्ष हुआ है। इस तरह निमित्त राज्यका अर्थ उपादानके प्रति मित्रवत् स्नेह करनेवाला या उपादानको उसकी विवक्षित कार्यरूप परिणतिमें सहायता देनेवाला होता है ।