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शंका ६ और उसका समाधान
કલ
द्रव्य उभयरूपसे उपादान बन कर जिस कार्यके सन्मुख होता है उस समय उसमें निमित्त व्यवहार के योग्य बाह्य सामग्रीका सहज योग मिलता ही है ।'
अपर पक्ष पूछा है कि 'यह जो क्षेत्र परिवर्तन इस मिट्टीका हुआ वह क्या खानमें पड़ी हुई उस मिट्टीकी क्षणिक पर्यायों के क्रमसे हुआ। समाधान यह है कि जीव और दो प्रकारको सम स्वीकार करता है - एक क्रियावती शक्ति और दूसरी भाववती शक्ति । यही कारण है कि इन दोनों द्रव्योंमें यथासम्भव दो प्रकारका भाव स्वीकार किया गया है—एक परिस्पन्दात्मक और दूसरा अरिस्पन्दात्मक उनमें से परिस्पन्दात्मक भावको क्रिया कहते हैं और अपरिस्पन्दात्मक भावको परिणाम कहते है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए तत्त्वार्थवार्तिक अ०५ सू० २२ वार्षिक २१ में लिखा है
द्रव्यस्य हि भावी द्विविधः - परिस्पन्दात्मकः श्रपरिस्पन्दात्मकश्च । तत्र परिस्पन्दात्मकः क्रियेत्या ख्यायते इतरः परिणामः ।
तत्वार्थश्लोकवार्तिक पृ० ३९८ में भी क्रियाका यही लक्षण करते हुए लिखा है
द्रव्यस्य हि देशान्तरप्राप्तिहेतुः पर्यायः किया, न सर्वः ।
इस प्रकार भावके दो प्रकारके सिद्ध हो जाने पर यहाँ पर गति और स्थितिका विचार करना है । इसका लक्षण बतलाते हुए सर्वार्थसिद्ध अ० ५ सू० १७ में कहा है
देशान्तरमा सिहं तुर्गतिः ।
जो देशान्तरकी प्राप्ति हेतु है उसका नाम गति है
उक्त सूत्रको व्याख्या के प्रसंग तत्त्वार्धवार्तिक में गतिका लक्षण इस प्रकार किया है-
द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः परिणामी गतिः |१| नृभ्यस्य बाह्यान्तरहेतुसन्निधाने सति परिणाममानस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः परिणामो गतिरित्युच्यते ।
द्रव्य देशान्तर में प्राप्तिकं हेतुभूत परिणामका नाम गति है || बाह्य और अम्पन्तर हेतुके रात्रिधान होने पर परिणमन करते हुए द्रव्य देशान्तर में प्राप्ति हेतुभूत परिणामको गति कहा जाता है। गतिके विषय में विचार करते हुए हमें क्रिया स्वरूप पर विस्तारसे दृष्टिपात करना होगा । इस सम्बन्ध में तस्वार्यदलोकवार्तिक अ० ५ सू० २२ में लिखा है---
परिस्पन्दात्मको द्रव्यपर्यायः संप्रतीयते ।
क्रिया देशान्तरप्राप्तिहेतुत्यादिभेदकृत् ॥३९॥
गत्वादिभेदको करनेवाली देशान्तर प्राप्ति में हेतुभूत जो परिस्पन्दात्मक द्रव्यपर्याय है उसे क्रिया जानना चाहिए ॥ ३९ ॥
यह परिस्पन्दात्मक क्रिया जीवों और पुद्गलों दो द्रव्यों में ही होती है। इसका राष्टीकरण करते हुए प्रवचनसार में लिखा है
पुद्गलास्तु परिस्पन्दस्व | स्वापरिस्पन्देन भिन्नाः संघातेन संहताः पुनर्भेदेनायमानावसिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति । तथा जीवा अपि परिस्पन्दस्वभावत्वात्परिस्पन्देन नूतनकर्म-नोकर्मपुद्गलेभ्यो भिन्नास्तैः सह संघातेन संहता पुनभेदेनोत्पद्यमानावतिष्ठमान भज्यमानाः कियावन्तश्च भवति ||१२९ ॥