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________________ ५२४ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा ये मल सिद्धान्त हैं जिनका श्री समयसारजोको ६६ और १०० नं. की गाथा और उनकी टोकाम स्पष्टीकरण किया है। इसलिये प्रतिकारूपसे उपस्थित किये गये पूर्वोक्त प्रश्नोंपर विचार करते समय इन सिद्धान्तोंको ध्यानमें लेनेको अत्यन्त आवश्यकता है। साथ ही यह नियम भी है कि अरिहन्त जिनकी दिव्यध्वनि के समय ओछ, तालु मादिका व्यापार भी नहीं होता । कहा भी है यत्सर्वात्महितं न वर्णसहितं न सन्दितोडोदयं नो चांछाकलितं न दोषमलिनं नोच्यासरुद्ध क्रमम् । शान्त्यमर्ष विर्भः समं पशुमणैराकर्णितं कपिभिः सकाः सर्वविदो विनष्टविपदः पायादपूर्व यचः ।। इस श्लोकम आये हुये 'न वर्णसहिसं न स्पन्दितोष्ठोदयं' ये दोनों पद ध्यान देने योग्य है । इनका तात्पर्य यह है कि दिव्यध्वनि अ, आ आदि स्वरत्रणी तथा क, ख आदि व्यंजनवाँसे रहित होती है। दिव्यध्यनिके समय ओठ आदिका व्यापार भी नहीं होता। इसके साथ एक बात और है और वह यह कि उनकी औदगिकी क्रियाको प्रवचनसारजी में क्षायिकी बतलाया है। स्पष्टीकरण करते हुए प्रवचनसार गाथा ४५ में कहा है पुण्णफला अरहंता तेसिं क्रिरिया पुणो हि ओदया। मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग त्ति मदा ॥३॥ अरहन्त भगवान पुण्यफलवाले हैं और उनकी क्रिया औदयिकी है, मोहादिसे रहित है, इसलिये वह क्षायिकी मानो गई है 11४५॥ __ अहन्तः खलु सकलसत्यपरिपक्वपुण्यकल्पपादपफला एव भवन्ति । क्रिया तु तेषां या काचन सा सर्वापि तबुदयानुभावसंभाषितारमसंमृतिया किलोदयिस्येव । अथैव भूतापि सा समस्तमहामोहमूर्धामिषिकस्कन्धावारस्यात्यन्तक्षये संमतत्वान्मोहरागडेषरूपाणामुपरजंगकानामभावाच्चंतन्यविकारकारणतामनासादयन्ती नित्यमौदयिकी कार्यभूतस्य बन्धस्याकारणभूनतया कार्यमतस्य मोक्षस्य कारणभूततया च क्षायिक्येव कथं हि नाम नानुमन्येत । अयानुमन्येत चेत्तर्हि कर्मविपाकोऽपि न तेषां स्वभावविघाताय ॥४५॥ ___अर्थ--प्ररहन्त भगवान् जिनके बास्तवमें पृण्यरूपी कल्पवृक्ष के समस्त फल भलीभांति परिपश्व हुए हैं ऐसे ही हैं और उनकी जो भी क्रिया है वह सब उस (पुण्य) के उदयके प्रभावसे उत्पन्न होने के कारण ओदायिकी ही है। किन्तु ऐसी होने पर भी वह सदा औदविकी क्रिया महामोह गजाको समस्त सेनाके सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होती है, इसलिये मोह, राग, द्वेषरूपी उभरंजकोंका अभाव होनेसे चैतन्यके विकारका कारण नहीं होती, इसलिये कार्यभत बन्धको अकारभूततासे और कार्यभूत मोक्षकी कारणमततासे क्षायिको ही क्यों न माननी चाहिये ? (अवश्य माननी चाहिये ।) और जब क्षायिको हो माने तब कर्मविपाक (कर्मोदय) भी उनके (अरहन्तों के) स्वभाव विघातका कारण नहीं होता । (यह निश्चित होता है) ॥४५॥ इस प्रकार इन प्रमाणोंके प्रकाशमै ज्ञानोके ज्ञान-भावको दृष्टिसे विचार करनेपर विदित होता है कि झानो मात्र ज्ञानभावका कर्ता है, वह परभावका निमित्तकर्ता भी नहीं है । श्री समयसारकलशमें कहा है ज्ञानिनो ज्ञाननिवृताः सर्वे भावाः भवन्ति हिं। सर्वेऽप्यज्ञाननिवृत्ता भवन्स्यज्ञानिनस्तु ते ॥६॥
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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