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________________ संका ८ और उसका समाधान अर्थ-ज्ञानी के समस्त भाव ज्ञानसे रचित होते है और अज्ञानीफे समस्त भाव अज्ञानसे रचित होते हैं ॥७॥ स्पष्ट है कि अग्निहन्त भट्रारक केवली जिनके केवलज्ञानकी दृष्टिसे विचार करने पर तो मही विदित होता है कि केवलज्ञान में जिस प्रकार अन्य अनन्त पदार्थ शेयरूपसे प्रतिविम्बित होते हैं उसी प्रकार दिव्यध्वनिरूपरो परिणत होनेवाली भाषावर्गणाएं भी प्रतिबिम्बित होती है। इसलिये केवलज्ञान की विष्यध्वनिके प्रवर्तन में वही स्थिति रहती है जो अन्य पदार्थों के परिणमनमें रहती है अर्थात् केवलोका उपयोग दिपध्वनिके प्रवर्तन के लिये उपयुक्त होता हो ऐसा नहीं है। इसी प्रकार दिव्यध्वनिके लिये शरीरकी क्रिया द्वारा वाचनिक प्रवृत्ति होना भी सम्भव नहीं है। फिर भी दिव्यध्वनिका प्रवतन तो होता ही है और अरिहन्त मदारकै तीर्थकरप्रकृति के उदयके साथ वार अघाति कौका उदय तथा योगप्रवृत्ति भो पाई जाती है । अत: इस दुष्टिसे विचार करने पर यही मिति होता है कि (१२) केवली जिनके साथ दिव्यध्वनिका योग अपेक्षासे निमित्त-मैमित्तिक सम्बन्ध है ऐसा प्रवचनसार गाथा ४५ की टीकाम लिखा है। (३) केवली और दिव्यध्वनि भिन्न-भिन्न चेतन और जड़ द्रव्य है, इलिये उनका जो व्यवहारसे निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध दिखलाया गया है यह उपचरित । (४) केवलोके सत्य और अनुभय ये दो वचनयोग होते हैं इसी प्रकार दिव्यध्वनि भी सत्य और अनुभयरूप होती है, क्योंकि उसके द्वारा सत्यार्थ और अनुभयरूप अर्थका प्रकाशन होता है। (५) दिमध्वनिकी प्रामाणिकता और स्वाश्रितताको ठीक तरहसे जाननेके लिये जयधवला पुस्तक का यह प्रमाण पर्याप्त है । वहाँ कहा है शब्दो अर्थस्य निःसम्बन्धस्य कथं वाचक इति चेत् ? प्रमाणमर्थस्य निःसम्बन्धस्य कथं ग्राहकमिति समानमेतन् । प्रमाणाययोजन्य-जनकलक्षणः प्रतिबन्धोऽस्तीति चेत् न, वस्तुसामर्थस्यन्यतः समुत्पतिविरोधात् । अनोपयोगी श्लोक :-- स्वत: सर्वप्रमाणानां प्रमाणमिति गृह्यताम् । न हि स्वतोऽससी शक्तिः कतु मन्येन पार्यते ॥१२॥ प्रमाणार्थयोः स्वभावत एवं प्रासमाहकभावश्चेत् , तर्हि शब्दार्थयोः स्वमावत एष वाच्यवाचकभावः किमिन्त्रि नेप्यते, अविशेषात् ? अदि स्वभावतो वाच्यवाचकभावः फिमिति पुरुषव्यापारमपेक्षते चेत ? प्रमाणेन स्वभावतोऽथसम्बन्धेन किमिसीन्द्रियमालोको वा अपेक्ष्यत इतिसमानमतत् । शब्दार्थसम्बन्धः कृत्रिमत्वादा पुरुषव्यापारमपेक्षते । -जयधवला पु० ६,०२३९ । शांका-शब्दका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है तो वह अर्थका वाचक कैसे हो सकता है ? समाधान-प्रमाणका अर्था के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है तो वह अर्शका ग्राहक कैसे हो सकता है यह भो समान है । अर्थात प्रमाण और अर्थका कोई सम्बन्ध न होने पर भी जैसे वह अर्थका ग्रहण कर लेता है वैसे ही शब्दका अर्भके साथ कोई सम्बन्ध रहनेपर भो शब्द अर्थका वाचक हो जाय, इसमें क्या आपत्ति है।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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