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________________ ५२६ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा शंका-प्रमाण और अर्थमें जन्य-जमकलक्षण सम्बन्ध पाया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि वस्तुकी शक्तिकी अन्यसे उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। यहाँ इस विषयमें उपयोगी श्लोक देते है राब प्रमाणों में स्वतः प्रमाणता स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि जो शक्ति पदार्थमें स्वत: विद्यमान नहीं है वह अन्य के द्वारा नहीं की जा सकती है ॥९२।। यदि प्रमाण और अर्थ में स्वभावसे ही ग्रााग्राहकभावसम्बन्ध स्वीकार किया जाता है तो शब्द और अर्थ स्वभावसे ही वाचन-वाचकभावसम्बन्ध क्यों नहीं मान लिया जाता है, क्योंकि जो आक्षेप और समाधान शब्द और अर्थक सम्बन्धके विषय में किये जाते हैं वे सब प्रमाण और अर्थके सम्बन्धके विषयमें भी लागू होते है, दोनामें कोई विशेषता नहीं है । का-शब्द और अधों यदि स्वभावसे ही वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध है तो फिर वह पुरुषव्यापारकी अपेक्षा क्यों करता है? समाधान-प्रमाण यदि स्वभावसे ही अर्थसे सम्बद्ध है तो फिर वह इन्द्रिय-व्यापार या आलोककी अपेक्षा क्यों करता है? इस प्रकार शब्द और प्रमाण दोनों में शंका और समाधान समान है। फिर भी पदि प्रमाणको स्वभावसे ही पदार्थाका ग्रहण करनेवाला माना जाता है तो शब्दको भी स्वभावसे ही अर्थका वाचक मानना चाहिये । अथवा शब्द प्रोर पदाथका सम्बन्ध कृत्रिग है, इसलिये बह पृरुषके व्यापारको अपेक्षा रखता है-- इस प्रकार जयधवलाके इस उल्लेखसे निश्चित होता है कि वास्तवमें दिव्यध्वनिको प्रमाणता स्वाचित है, क्योंकि यदि उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित नहीं मानी जाती है तो वह अन्वसे उत्पन्न नहीं की जा सकती। फिर भी असद्भल व्यवहारनयको अपेक्षा विचार करने पर जैसा कि हम पूर्व में लिन आये है वह तीर्थकर आदि प्रकृतियोंके उदयके निमित्तसे होने से पराश्रित भी कही गई है। यहां पर तीर्थकर प्रकृति के साथ आदि पदका उहलेख अन्य केलियोंको लक्ष्यमें रखकर किया गया है। तथा योगको अपेक्षा सर्वज्ञदेवकी भी उसमें निमित्तता है। श्री अमृतचन्द्रसूरिने समयसारके अन्तमें शब्दागमके स्वरूपको बतानेवाले जो वचन लिखे है उसमें केवल अपनी लधुता ही नहीं दिखलाई है, किन्तु शब्दको स्वाचित प्रमाणताको मुख्यकर ही वह वचन लिखा गया है। जैसा कि जयघवलाके पूर्वोक्त प्रमाणसे स्पष्ट है। इसी प्रकार “आरोपज्ञ' 'आतषचनादिनिबन्धन' 'आप्ते वक्तरि' 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक' शब्दोंका प्रयोग पूर्वाक्त अभिप्रायसे ही किया गया है। इसी प्रकार समयसार गाथा ४१५की टीकामें शब्दब्रह्मकी स्वतःप्रमाणता एक सिद्धान्तके रूपमं प्रतिपादित है, न कि लधुताप्रकारानके रुपमे ।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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