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शंका ११ और उसका समाधान स्व-परप्रत्यय पर्याय हैं और शेष स्वप्रत्यय पर्याय परिगणित की गई है। किन्तु ये जितनी भी पर्यायें होती है उन सबमें काल द्रत्र्य आश्रयहेतु है । तत्त्वार्थवातिक ० ५ मूत्र २२ में लिस्ना है
वर्तनायुपकारलिंगः कालः । २३ । उमा वर्तनादयः उपकारा यस्यार्थस्य लिंग स कालः ।
वर्तनादि उपकार जिसका लिंग है वह काल है । २३ । कहे गये वर्तनादि उपकार जिस अर्थ के लिंग है वह काल है।
इससे विक्षित होता है कि प्रत्येक दृश्यको जितनो भी पर्याय होती हैं उन सबका सामान्य बाह्य हेतु काल है । इसी तध्वको स्पष्ट करते हुए हरिवंशपुराण सर्ग ६ में कहा है
निमित्तमान्तरं तन्न योग्यता वस्तनि स्थिता।
बहिनिश्चयकालस्तु निश्रितस्तत्त्वदर्शिमिः ॥ ७॥ इन परिणामादिरूप पर्यायोंमें अन्तरंग हेतु वस्तु स्थित योग्यता है और बहिरंग हेतु काल है ऐसा तत्त्वदशियोंने निश्चित किया है ।।७।।
इससे स्पष्ट विदित होता है कि आगम में जहाँ भी अगुरुलधुगुणनिमित्तक पनुगणहानि-वृद्धिरूप पर्याय निर्दिष्ट की गई हैं वहाँ मात्र अन्तरंग हेतुका बान कराने के लिए ही वैसा निर्देश किया गया है । उसका यह अभिप्राय नहीं है कि उनका बहिरंग हेतु निश्चय काल भी नहीं है।
जहाँ विभावको निमित्त भूल बहिरंग सामग्री नहीं होती वहाँ शहरंग हेतुगसे कालको नियमसे स्त्रोकार किया गया है ऐसा आगमका अभिप्राय है। किन्तु स्वभावपर्यायों में उसके कथनको अविवक्षा रहती है इतना अवश्य है।
२. आकाशका अवगाहहेतुत्व यह सामान्य गुण है । विवार यह करना है कि आकाश में उत्पाद-व्यय कैसे घटित होता है ? तत्त्वार्थवातिक अ० ५ मूत्र १८ में इसका विचार किया गया है । वहाँ बतलाया है
न्यार्थिगुणभाचे पर्यायार्थिकग्राधान्यात स्वप्रत्ययागुरुलघुगुणवद्धि-हानि विकल्यापेक्षया अवगाहकजीव-पुद्गलपरप्रत्ययावगाह विवक्षया च श्राकाशस्य जातत्वोपपत्तेः ।
द्रव्याथिक नयक गौण करनगर पर्यायाषिक नयको प्रधान तान्नश स्वप्रत्यय अशुरुलघुगुणवृद्धि-हानिरूप भेदको विवक्षासे और जीव-पुद्गल परप्रत्यय अवगाह भेदको विवक्षारो आकाशका उत्पाद बन जाता है ।
यह ऐसा प्रमाण है जो इस बातका साक्षी है कि ऐसा एक भी कार्य नहीं है जिसमें उभयनिमित्तताका निर्देश नहीं किया गया हो । यहाँ अवगाहभेदसे आकाशका उत्पाद बतलाते हुए उसे अगुरुलघुगुणनिमित्तक स्वप्रत्यय बसलाकर भी परप्रत्यय कसे घटित होता है यह सिद्ध किया गया है।
३. इसी प्रकार तत्वार्यवात्तिक अ• १ सूत्र २९ में इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए लिखा है
एवं धर्मास्तिकायादिष्यपि अमूर्तत्वाचेतनत्वासंख्येयप्रदेशत्वगतिकारणस्वभावास्तित्वादयोऽनन्तभेदागुरुलधुगुणहानिवृद्धिविकारः स्वप्रत्यौः परमत्ययश्च गतिकारणत्वविशेषादिभिः अविरोधिनः परस्परविरोधिनश्च विज्ञयाः।
इसी प्रकार, धर्मास्तिकायादिक में भी स्वप्रत्यय अनन्त अगुहलघु गुग हानि-बृद्धि विकारोके द्वारा और परप्रत्यर गतिकारणत्वविशेषादिके द्वारा अमर्तत्व, अचेतनत्व, असंख्येयप्रदेशस्त्र, गतिकारणस्वभाव और अस्तित्व आदिक अविरोधो और परस्पर विरोधी धर्म जान लेने चाहिए ।