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________________ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा ४. अपर पक्ष के सामने ये प्रमाण तो रहे ही होंगे। उसके सामने स्वामी समन्तभद्रका 'बाह्येतरोपाधिसमग्रतेय' यह वचन भी रहा होगा। इसमें स्पष्ट बतलाया गया है कि लोक में जितने भी कार्य होते है ये सब बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रतामें होते हैं। यह नियम वचन है जो इस नियमकी घोषणा करता है कि बाह्य और आभ्यन्तर उपकरणों की समग्रता में हो सब कार्य होते हैं। अतएव जिन्हें अपर पक्ष अगुरुलघु गुणके द्वारा षड्गुणी हानिवृद्धिरूप स्वप्रत्यय परिणमन कहता है उन्हें भी बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिको समग्रता में उत्पन्न हुए जानना चाहिए। पूर्वमें हमने तस्वार्थकार्तिक के जो दो उद्धरण उपस्थित किये हैं उनसे भी इसी तथ्यको पुष्टि होती है । ५. हरिवंशपुराण सर्ग ९ में भी ऐसा ही एक अनुरूप आत्मपरिणाम और परोपामि इन दोनोंका अगुरुलघुत्वात्मपरिणाभसमन्विताः । परोपाधिधिकारित्वादनित्यास्तु कथंचन ||७|| ६४६ लोक आता है। इसमें भी प्रत्येक परिणामके प्रति परिग्रह किया गया है । श्लोक इसप्रकार है ६. जो विभाव पर्यायें हैं वे भी बहुगुणी हानि -वृद्धिरूप होती है। इसके लिए गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३२३ से ३२६ पर दृष्टिपात कीजिए। इन गाथाओं में श्रुतज्ञानकी पड्गुणी हानि-वृद्धिरूप पर्यायोंका निर्देश किया गया है । स्वभाषपर्यायें षड्गुणी हानि बृद्धिरूप होती है इसे तो अपर पक्ष भी स्वीकार करता ये कति प्रमाण हैं जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि सभी परिणाम बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समतामें ही होते है। अतएव अपर पक्षका अगुरुलघु गुणके द्वारा बड़गुणो हानिवृद्धिरूण परिणाम इसके अपवाद हैं ऐसा आशय व्यक्त करना आगमविरुद्ध तो हैं ही, तर्क और अनुभवके भी विरुद्ध है । कथनसे यह जानकारी तो मिलती ही है कि अविभागप्रतिच्छेदों की षट्स्थानपतित हानिवृद्धिका यह कथन सब द्रश्योसम्बन्धी पर्यायोंकी अपेक्षा किया गया है। साथ ही यह जानकारी भी मिलती है। कि जहाँ पर गुणविशेषकी पर्यायोंके कथानकी विवक्षा न होकर मात्र स्वभाव पर्यायका कथन करना इष्ट होता है यहाँ वह सर्वत्र घटित हो ऐसे सामान्य लक्षणका निर्देश किया जाता है । प्रवचनसार गाथा ६३ की सूरिकृत टोका में तथा नियमसार गाथा १४ की टीका आदिमें पर्यायोंके दो भेद करके स्वभाव पर्यायके निर्देशके प्रसंगले यही पद्धति अपनाई गई है । यतः वहाँ स्वभावपर्यायका सामान्य लक्षण बतलाना दृष्ट है और स्वभाव पर्याय (स्वप्रत्यय पर्याय) विभाव की हेतुभूत बाह्य उपाधि से रहित होती है, इसलिए वहाँ उसका निर्देश करते समय जैसे विशेषणरूप से गुणविशेषका उल्लेख नहीं किया गया है उसी प्रकार विशेषणरूपसे बाह्य उपाधिका भी उल्लेख नहीं किया गया है। इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना चाहिये। किन्तु पर्याप इस सामान्य लक्षण में रूपादि, ज्ञानादि या गतिहेतुत्वादि जिस गुणको विशेषणरूपसे उल्लिखित कर दिया जायगा वहाँ वह उस उस गुणकी स्वभाव पर्याय हो जायगी और यदि इसके साथ पर प्रत्ययरूप उपाधिका उल्लेख कर दिया जायगा तो वह उस उस गुणकी विभाव पर्याय कहलाएगी। इस तथ्य को विशेषरूपसे समझने के लिए प्रवचनसार गाथा ९३ की टीका हृदयङ्गम करने योग्य है । प्रत्येक द्रव्य के परिणाम दो ही प्रकारके होते हैं इसका समर्थन अष्टसहस्री पु० ५४ के इस वचनसे भी होता है । faraat ग्रात्मन: परिणाम :-- स्वाभाविक आगन्तुकञ्च । तत्र स्वाभाविकोऽनन्तज्ञानादिरात्मस्वरूपत्वात् । मलः पुनरज्ञानादिरागन्तुकः, कर्मोदय निमिसकश्यात् ।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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