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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचचा
नियमसार ग्रन्थको मूल गाथा और उसकी व्याख्या करनेवाले श्री पद्मप्रभमलघारी देवकी मान्यता के अनुसार सर्वज्ञता आरोपित होने से आरोपित सर्वजतना समर्थित होती है और दूसरे श्री अमृतचन्द्र सुरिके पायानानुसार निश्चयनयसे स्वाश्रित सर्वज्ञला समर्थित होती है, इसका समन्वय करनेके लिये जो आपने आत्मज्ञता में सर्वज्ञताका अन्तर्भाव करते हुए आत्मज्ञमें व्यवहारत के विषयभूत सर्वज्ञताका आरोप बतलाया है वह हमें युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है।
विशेष विचार यह भो उत्पन्न होता है कि जब वास्तविक सर्वज्ञताका समर्थन करने के लिये श्री अमुचन्द्रसूरिने स्वाति दो शक्तियों निरूपित की हैं जिन्हें चेतनानुगामी पर्याय शक्य कहा जा सकता है और उनके द्वारा सत्य सर्वज्ञताका साधन किया है। उसके अनुसार अन्य चंतन व जड़ पदार्थोंमें जो कि कार्यकारणभाव के रूप में प्राप्त होते हैं उनमें भी ऐसी हो जन्यत्व वा जनकत्वादिरूप शक्तियाँ यदि मानो जायें तो वे भी स्वाश्रित पर्याय शक्तिय क्यों नहीं मानी जा सकेंगी, क्योंकि अनन्त धर्मात्मक वस्तुएँ 'अनन्तशक्तिश्वाद् भावानाम् ' इस सिद्धान्त के अनुसार उनके मानने में कोई विरोध नहीं रह जाता।
इस प्रकार आप उपस्थित समस्याओंके विषय में ठीक-ठीक प्रकाश डालेंगे |
मूलशंका - केवली भगवान्की सर्वज्ञता निश्चयसे हैं या व्यवहार से ? यदि व्यवहार से है तो वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ?
प्रतिशंका २ का समाधान
इस प्रश्न के उत्तर में नियमसार तथा बन्य प्रमाणों के प्रकाश में निश्चय व्यवहार से केवल जिनमें सर्वज्ञता और आत्मज्ञताको स्थिति क्या है यह स्पष्ट किया गया था। फिर भी प्रतिशंका २ द्वारा उसी प्रश्नको पुनः विषादका विषय बनाकर दो अन्य प्रश्न उपस्थित किये गये । वे इस प्रकार है-
(१) आमाकी अपेक्षा सर्वज्ञताका क्या रूप है ?
उमको
(२) उन्हीं केवली भगवान में सकल ज्ञेयोंकी अपेक्षा आरोपित सर्वज्ञता जाने स्वीकृत की संगति किस प्रकार हो सकती है ?
ये दो प्रदन है। इनका समाधान इस प्रकार है
(१) पदार्थ तीन प्रकार के हैं- दादरूण, अर्थरूप और ज्ञानरूप 1 उदाहरणार्थ 'घट' यह शब्द घट शब्दरूप पदार्थ है । जलवारण करने में समर्थ 'ट' अर्थरूप घट पदार्थ है और 'घटाकार ज्ञान' घट ज्ञानरूप घट पदार्थ है 1 इस प्रकार घट पदार्थ समान सर्व पदार्थ भी तीन प्रकारके हैं। सर्व प्रथम निश्चयायकी अपेक्षा विचार करनेपर जब आत्मज्ञ केवलो जिन केवलज्ञानके द्वारा शेयरूपसे अपने आत्माको जानते है तब दर्पण के समान शेयाकाररूप परिणमन स्वभाव से युक्त और तद्रूप परिणत अपनी ज्ञानपर्यायको भी अपनेंसे अभिन्न रूपसे जानते हैं, इसलिए वे केवली जिन आत्मज्ञ होने के साथ-साथ स्वरूपसे सर्वज्ञ है। यहीं स्वाचित सर्वज्ञता है। इस प्रकार विश्लेषण करनेपर यह स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होता है कि जो आत्मज्ञता है वहो सर्वज्ञता है । निश्चयकी अपेक्षा आत्मज्ञ कहो या ( स्वात्रित ) सर्वज्ञ कहो दोनोंका अर्थ एक है ।