________________
3
शंका ७ और उसका समाधान
४९९
यदि निश्चयन से स्वद्रव्यको जानने के समान तन्मय होकर परद्रव्यको जानें तो परकीय सुख-दुःख, राग-द्वेषके परिज्ञान होनेपर वे सुख-दुखी, रागी-द्वेषो हो जाय यह महान् दूषण प्राप्त होता है । यहाँपर एकमात्र जिस ज्ञानको अपेक्षा केवलो जिनको व्यापक कहते हैं मात्र वही ज्ञान उपादेयभूत अनन्तसुखसे अभिन्न होनेके कारण उपादेय हैं यह अभिप्राय है ।
द्वितीय दौर
: 2:
शंका ७
प्रश्न यह था
केवली भगवानको सर्वज्ञता निश्चयसे हैं या व्यवहारसे ? यदि व्यवहारसे हैं तो वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ?
प्रतिशंका २
इसके उत्तर में आपने नियमसार गाथा १५९ के अनुसार बतलाया है कि केवली भगवान् सब पदार्थोंको व्यवहारनमसे जानते हैं, अतः इनकी यह सर्वज्ञता असद्भूत है ऐसा आपने प्रतिपादित किया है। और अद्भुत शब्दका अर्थ आपने 'आरोपित' किया है ।,
फिर आप लिखते हैं कि चूंकि लोकमें जो धर्म पाया जाये उसी का आरोप दूसरे द्रव्य पर होता है, इसलिये आपने पूर्वोक्त गाथा १५६ में निश्चयनयसे प्रतिपादित आत्मज्ञतामे सर्वज्ञताका सद्भाव स्वीकार किया है।
इस प्रकार आप केवली भगवान् सर्वज्ञताको आत्मज्ञताको अपेक्षा वास्तविक मानकर उसी सर्वज्ञताको उन्हीं केवली भगवान्में सकल ज्ञेयोंकी अपेक्षा आरोपित कर लेते हैं. आपके इस कथनमें दो बातें विचारपोय हो जाती हैं
(१) आत्मज्ञलाकी अपेक्षा सर्वज्ञताका क्या रूप है ?
(२) उन्हीं केवल भगवान् में सकल ज्ञेयोंकी अपेक्षासे आरोपित सर्वज्ञता आपने स्वीकृत की है उसकी संगति किस प्रकार हो सकती है ?
ये दो प्रश्न हमारे खड़े ही रहते हैं ।
पुनश्च आपने जो निश्चय से सर्वज्ञता स्थापित करनेके लिये श्री अमृतचन्द्र सूरि प्रमाणका उल्लेख करते हुए समयसार के अनुसार जीव में सर्वदशित्व और सर्वज्ञत्व नामकी दो शक्ति स्वीकृत की है जो स्वाश्रित होनेसे निश्चयतयकी अपेक्षा आत्माकी सर्वज्ञताकी घोषणा करती हैं। यह और दूसरा नियमसारके मतका आपने उल्लेख किया है। इस प्रकारके निरूपणसे हमें अध्यात्मवादियोंके दो मत प्राप्त हो जाते हैं । एक तो