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________________ शंका ६ और उसका समाधान કર भt fasti समझ में आने योग्य बात नहीं हैं। जिसे यहाँ पर प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय कार्यका साधनभूत स्वलक्षण कहा है उसका प्रत्येक समय में होना ही उसकी तैयारी है। इसके सिवा किसी भी विवक्षित कार्यको अपेक्षा अन्य जितनी तैयारी की जाती है यह विकल्पका विषय है। यह वो प्रत्येक द्रव्यके स्वलक्षणभूत अन्तरंग साधनको गोमांस है। बाह्य साधनके यह मीमांसा है कि प्रत्येक व्यके प्रत्येक समय में अपनेअपने कार्यके सन्मुख होने पर उसका मनात्मभूत लक्षणरूप बाह्य साधन नियमसे होता है । बाभ्यन्तर साधन हो और बाह्य साधन न हो यह भी नहीं है, तथा अन्तरंग साधन हो और कार्य न हो यह भी नहीं है। प्रत्येक समय में अन्तरंग - बहिरंग साधनों की वृति नियमसे होती है और इसे जिस कार्यके होनेकी सूचना freती है यह कार्य भी नियम होता है। अपर पक्षका कहना है कि 'उपादानकी अपने कार्य अनुकूल होने पर भी यदि निमित्तका सहयोग नहीं मिलता तो कार्य नहीं होता । किन्तु उसका यह कथन विकी अपेक्षा है या प्रत्येक द्रध्यक प्रत्येक समय होनेवाले परिणामको अपेक्षा है इसका उस पक्ष की ओरसे कोई खुलासा नहीं किया गया है। यदि विवक्षाको अपेक्षा उक्त कथन है तो यह मान्यताको बात हुई, इसका प्रत्येक प्रत्यके प्रत्येक समय होनेवाले क्रियालक्षण या भावलक्षण परिणामये बोई सम्बन्ध नहीं है। दूसरा व्यक्ति चाहता है कि इस शक्करका बने। इसके लिए वह अपने विकल्पोंके अनुसार उपाय योजना भी करता है, बाह्य परिकर भी उसकी इच्छानुसार प्रवतंग करता हुआ प्रतीत होता है किन्तु उस शक्करको यदि किसी कालावविके मध्य लड्डू रूप नहीं परिणमता है तो उसकी इच्छा होकर भी विलीन हो जाती है इच्छा किसी कार्य के होने में निमित्त अवश्य है किन्तु मे होनेवाले परिणाम के साथ यदि उसका मेल बैठ जाय तो ही निमित्त है, अन्यथा नहीं। इसलिए मिया के आधार पर यह सोचना कि 'उपादानकी अपने कर्मके अनुकूल तैयारी होने पर भी यदि निमितका सहयोग नहीं मिलता तो कार्य नहीं होता।' कोरी कल्पना है। 15 । यदि प्रत्येक द्रव्य में प्रत्येक समयमें होनेवाले परिणामकी अपेक्षा अपर पक्षका उक्त कथन हो तो उसे श्रागमका ऐसा प्रमाण उपस्थित करना चाहिए था जी अपर पक्षके उक्त अभिप्रायको पुष्टिमें सहायक होता । किन्तु आगमकी रचना अपर पक्षके उक्त प्रकारके विकल्पकी पुष्टिके लिए नहीं हुई है, वह तो प्रत्येक पके स्वरूप उद्घाटन और कार्य कारणभाव के सुनिश्चित लक्षणोंके निरूपण मे चरितार्थ है। यह आगम ही है कि अनन्त र पूर्वोसर दो क्षणोंमें ही कारण कार्यभाव देखा जाता है ( प्रमेवरत्नमाला ३, ५७ ) । यतः प्रत्येक समय में प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य करता ही है, उसे उस समय अपना कार्य करने के लिए बाह्य-सामग्रीको प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती, क्योंकि उसके अनुकूल बाह्य सामग्रीका उपस्थित रहना अवश्यंभावी है, इसलिए प्रत्येक प्रयमें प्रत्येक समय में होनेवाले परिणामको ध्यान में रखकर अपर पक्षका यह सोचना कि 'उशदानकी अपने कार्यके अनुकूल तैयारी होनेपर भी यदि निमित्तोंका सहयोग नहीं मिलता तो कार्य नहीं होता ।' कल्पनामात्र हूँ । ले जिस आशयको फलित अपर पक्ष तत्त्वार्थदार्तिक के ( अ० ५ ० १७ वा० ३१) करने की कल्पना करता है वह उमत उल्लेख अभिप्राय नहीं है। उस द्वारा श्री मात्र बाह्य साधनको पुष्टि की गई है, क्योंकि जब यह आगम है कि प्रत्येक कार्यमें वाह्य और आभ्यन्तर उपाधिमता होती है। ऐसी अवस्था में प्रत्येक कार्यमें आभ्यन्तर साधनके समान वाह्य साधनको स्वीकार करना भी आवश्यक हो जाता है। आचार्य समन्तभद्रने मोक्षमागोंके लिए यद्यपि आभ्यन्तर साधनको पर्याप्त कहा है ( स्वयंभूस्तो० ६०
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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