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________________ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा है तथा उस कार्यकी जिसके साथ बाह्य व्याप्ति होती है उसे सहकारी कारण कहते हैं और होनेवालेका कार्य कहते हैं । भेद विषचामें प्रथम कथन सद्भुत व्यवहारनयका विषय है और दूसरा कथन असद्भूत व्यबहारनयका विषय है। ___ अपर पक्षने कायोंका विभाजन करते हुए उसे तीन प्रकारका बतलाया है-षड्गुणो हानिवृद्धिरूप परिणमनको ELELरणमन व परिणमन में परा मानना पक्षको ही स्वीकार करता है. व्यवहार पक्षको नहीं स्वीकार करता, यतः यह एकान्तकथन है. इसलिए इसे आगमसम्मत नहीं माना ज टूरारं प्रकारके कार्योंमें वह धर्मादि चार द्रव्यों के परिणमनोंका अन्तर्भाव करता है। इन्हें बह स्थ-पर प्रत्यय परिणमन लिखकर उनका नियत क्रमसे होना मानता है। किन्तु जब कि यह घटादि कार्योका अनियत क्रमसे होना मानता है और उनकी निमित्तताइन द्रव्योंके परिणमनों स्वीकार करता है तो न तो इनका नियत क्रामसे होना ही बन सकता है और न हो ये परिणमन स्व-परप्रत्यय होने के कारण स्वभावपर्याय संशाको ही प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि आगममें 'स्व-परप्रत्यय' पदमें 'पर' शब्द ऐसी निमित्तव्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री के अर्थ में आता है जो विभावपर्यायके होने में निमित्त है। अतएव धर्मादि द्रव्योंके परिणमनोंको स्वपरप्रत्यय लिखना आगम परम्पराके विरुद्ध होनसे इस कथनको भो आगमसम्मत नहीं माना जा सकता। तीसरे प्रकारके कार्समें वह घटादि कार्योको परिगणना करता है। किन्तु ये सब कार्य अपने-अपने कार्यकाल में प्राप्त होनेवाले प्रायोगिक और वासक निमित्तोंको प्राप्तकर स्वयं होते रहते हैं। न तो उपादानकारण कार्योंकी प्रागभावरूप अवस्थाको छोड़कर अन्य काल में बनता है और न ही बाह्य सामग्री भी अन्य कालमें निमित्त व्यवहार पदवीको प्राप्त होती है। इन दोनोंके एक साथ होनेका सहज योग है, इसलिए जिस कालमें घटादिरूप जो कार्य होता है वह अपने-अपने कालका उल्लंघन कभी नहीं करता। व्यतिरेकिण: पर्यायाः' इस नियमके अनुसार अपनी-अपनी सीमाके भीतर सभी पर्यायोंमें ध्यतिरेकीपना आगममें स्वीकार किया गया है। केवल विभावपर्यायोंमें ही व्यतिरेकीपना होता हो ऐसा आगमका अभिप्राय नहीं है। अतएव इन्द्रियगोचर पूर्व पर्यायोंको अपेक्षा उत्तर पर्यायोंमें यदि कुछ विलक्षणता दष्टिगोचर होती है तो उसे उस द्रव्यका ही कार्य समझना चाहिए, बाह्म सामग्रीका कार्य नहीं। स्पष्ट है कि प्रकृति में अपर पक्षने इस सम्बन्ध जो कुछ भी लिखा है वह आगमका आशय न होनेसे इसे भी आगमसम्मत नहीं माना जा सकता। इस सम्बन्धमें विशेष विचार पूर्वमें किया ही है। आगे अपर पक्षने तत्त्वार्थवार्तिक ०५ सू० १७ वार्तिक ३१ के आधारसे यह सिद्ध करनेका प्रयल किया है कि निमित्तोंका समागम उपादानकी कार्यरूपसे परिखत होनेकी तैयारी हो जाने पर हो ही जाता है ऐसा नियम नहीं बनाया जा सकता है, किन्तु यह तथा आगमके और दूसरे प्रमाण यही बसलाते हैं कि सपादानको जब निमित्तांका सहयोग प्राप्त होगा तभी उपादानकी नित्य द्रव्यशक्ति विशिष्ट वस्तुको जिस पर्यायशक्ति विशिष्टताको आप तैयारी शब्दसे ग्रहण करना चाहते है वह तैयारो होगी और तभी कार्य हो सकेगा।' यह अपर पक्षका वक्तव्य है। इसे ध्यानमें रखकर हम उस प्रमाणकी छानबीन कर लेना चाहते है। तत्वार्थवातिकका उक्त प्रकरण धर्मद्रव्य और अधर्म द्रष्यके अस्तित्वको सिद्धिका है। प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है इसकी सिक्षिके उपाय दो है-अम्पन्तर साधन और बाह्य साधन 1 अभ्यन्तर साधन प्रत्येक व्यका स्वलक्षण-आत्मभूत साधन हुआ करता है और बाह्य साधन परलक्षण-अनात्मभूत साधन हुआ करता है। प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समय में अपना कार्य करे और उसका आत्मभूत साधन उस समय न हो यह आगमश किसी
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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