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जयपुर (खानिया ) तत्व चर्चा
किये गये हैं । प्रेरक निमित्तका अर्थ यदि निमित्त कर्ता या निमित्त करण करके उसका अर्थ 'विशेष निमित्त' किया जाता तब तो कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि कर्मो का उदय उदीरणा आत्माके राग द्वेष आदि कार्यके विशेष निमित्त हैं और आत्मा के राग-द्वेष आदि विभाव भाव ज्ञानावरणादि कर्म परिणामके विशेष निमित्त हैं। पर अभी तक प्रतिशंकासे हम जो तात्पर्य समझ सके हैं उससे यही ज्ञात होता है कि जो निमित्त बलात् कार्यक स्वकालको छोड़कर आगे-पीछे पर द्रव्यमें कार्य उत्पन्न करता है वह प्रेरक निमित्त है । यदि प्रतिशंका में किये गये विवेचनका यही अभिप्राय हो तो कहना होगा कि आत्माको प्रबल पुरुषार्थ करनेका कभी अवसर ही नहीं मिल सकेगा । कारण कि प्रत्येक समय में जिस प्रकार कर्मोदय उदीरणा है, उसी प्रकार राग-द्वेष परिणाम भी है, अतः कर्म आत्माको बलात् परलत्र रखेगा और राग-द्वेष परिणाम बलात् कर्मबन्ध कराता रहेगा । इस प्रकार प्रतिसमय आत्माको कमाँके अधीन होकर परिणमना पड़ेगा और नये-नये कर्मोंको राग-द्वेषके अधीन होकर बँधना पड़ेगा। ऐसी अवस्थामें यह बात्मा त्रिकाल बन्धन से छूटने के लिये प्रबल पुरुषार्थ कभी नहीं कर सकेगा और प्रबल पुरुषार्थके अभाव में मुषितकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। तब तो जितने भी संसारी जीव हैं वे सब मुक्ति के अभाव में संसारी ही बने रहेंगे। आगम में 'प्रेर्यमाणाः पुद्गलाः' इत्यादि वचन पढ़कर प्रेरक कारण स्वीकार करना अन्य बात है पर उसका जिनागम में क्या अर्थ इष्ट है इसे समझकर सम्यक् निर्णय पर पहुँचना अन्य बात है ।
यह तो शास्त्र के अभ्यासी सभी विद्वान् जानते हैं कि प्रत्येक द्रश्य स्वभावसे परिणामो नित्य है । जिस प्रकार द्रव्यकी अपेक्षा नित्यता उसका स्वभाव है उसी प्रकार उत्पादव्ययरूपसे परिणमन करना भी उसका स्वभाव है । जब कि उत्पाद व्ययरूपसे परिणमन करना उसका स्वभाव है, ऐसी अवस्थामें उसे अन्य कोई परिणमा तभी वह परिणमन करे ऐसा नहीं है। इसका विशेष विचार श्री समयसारजी में सुस्पष्टरूपसे किया गया है | विचार करते हुए वहाँ लिखा है
यह पुद्गल द्रव्य जीव में स्वयं नहीं बँधा और कर्मभावसे स्वयं नहीं परिणमता । यदि ऐसा माना जाये तो वह परिणामो सिद्ध होता है । और कार्मण वर्गणाएं कर्मभावसे नहीं परिणमती होनेसे संसारका अमात्र सिद्ध होता है अथवा सांख्यमतका प्रसंग आता है। जीव पुद्गलद्रव्यों को कर्मभावसे परिणमाला है ऐसा माना जाये तो यह प्रश्न होता है कि स्वयं नहीं परणमती हुई उन वर्गणाओंको चेवन बात्मा कैसे परिणमा सकता है । अथवा यदि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मभावसे परिणमन करता है ऐसा माना जाये तो जीव कर्मको अर्थात् पुद्गलद्रव्यको कर्मरूप परिणामाता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है, इसलिये जैसे नियमसे कर्मरूप (care कार्यरूप से) परिणमन करनेवाला पुद्गल द्रव्य कर्म ही है इसी प्रकार ज्ञानावरणदिरूप परिणमन करनेवॉला कार्मण पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि ही है ऐसा जानो ।११६ से १२० ।
तथापि आगम में 'करता है, परिणमाता है, उत्पन्न करता है, ग्रहण करता है, त्यागता है, बाँधता है, प्रेरता है' इत्यादि प्रयोग उपलब्ध होते हैं। स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दने बन्धाधिकारमें बजरूप अवस्था में arest प्राप्त जीवद्रव्यकी संसाररूप पर्याय कर्म और नोकर्मको निमित्तकर हो होती है इस तथ्य को समझानेके लिये 'जह फलिमणी सुद्धो' ( २७८-२७६ ) इत्यादि दो गाथाएँ लिखते हुए 'परिणमाता है' जैसे शब्दोंका प्रयोग किया है । इस परसे बहुत से मनोपी उन दोनों गाथाओंका आश्रय लेकर 'परिणमाता' है इस पदको ध्यान में रखकर यह अर्थ फलित करते हैं कि प्रेरक निमित्तों की सामर्थ्य से दूसरे द्रव्यका विवक्षित कार्य स्वकालको छोड़कर आगे-पीछे भी किया जा सकता | प्रेरक निमित्तोंकी सार्थकता इसी में मानते हैं । किन्तु उनका वन गाथाओंके आधारस ऐसा अर्थ फलित करना क्यों तभ्ययुक्त नहीं है यह हम स्वयं भगवान्