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शंका ९ और उसका समाधान कुन्दकुन्दके शब्दोंमें ही बतला देना चाहते हैं। वे कस-फर्म अधिकारमें इसी बोलका स्पष्टीकरण करते हुए स्वयं लिखते है
उप्पादेदि करेदि य अंधदि परिणामएदि गिण्हदि य ।
आदा पुग्गलदग्ध ववहारणयस्स बसव्वं ।। १०७॥ अर्थ-आत्मा पुद्गल-द्रव्यको उत्पन्न करता है, करता है, बांधता है, परिणमाता है और ग्रहण करता है यह व्यवहारनयका कथन है।
इस माथाको व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतबन्द्र लिखते है
अयं खल्लारमा न गृह्णाति न परिणमयति नापादयति न करोति न बध्नाति व्याप्य व्यापकभावाभावात् प्राप्यं विकाय निरय व पुद्गलवाव्यात्मकं कर्म । यत्तु व्याप्य-ध्यापकभाषाभावेऽपि प्राप्यं रिकार्य निर्वयं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म गृहाति परिणमयरयुत्पादयति करोति बध्नाति चामप्ति विकल्पः स किलोपचारः।
अर्थ-यह बात्मा वास्तवमें व्याप्यापभावक अभाबके कारण प्राप्य, विकार्य और नित्यरूप पुद्गल-द्रव्यात्मक कर्मको ग्रहण नहीं करता, परिणमित नहीं करता, उत्पन्न नहीं करता, न उसे करता है और न बांषता है, फिर भी पाय-व्यापक भावका अभाव होने पर भी प्राप्य, विकार्य और निर्वस्वं पुद्गलव्यात्मक कर्मको आत्मा ग्रहण करता है, परिणमित करता है, उत्पन्न करता है, करता है और बांधता इत्यादिरूप जो विकल्प होता है वह वास्तवमै उपचार है।
इससे विदित होता है कि जिनागममें 'परिणमाता है' इत्यादि प्रयोगोंका दूसरे मनीषी प्रेरक कारण माम कर जो अर्थ करते हैं वह नहीं लिया गया है। भगवान् कुन्दकुन्दके समाग आचार्य विद्यानन्दि भी इसी अर्थको स्पष्ट करते हुए श्लोकवार्तिकमें लिखते है
तत: सूकं लोकाकाशमादिवव्याणामाधाराधेयता व्यवहारनयाश्रया प्रतिपत्तन्या, बाधकामावादिति । निश्चयनयान तेषामाधारायता युक्ता, व्योमधर्मादीनामपि स्वरूपेऽवस्थानान् । अन्यस्यान्यन्त्र स्थिती स्वरूपसंकरप्रसंगात् । स्वयं स्थानोरन्यन स्थितिकरणमनर्थकम्, स्वयमस्थानो: स्थितिकरणमसंम्भाध्यं शशविपाणवन् । शक्तिरूपेण स्वयं स्थानशीलस्याम्येन व्यकिरूपतया स्थितिः क्रियत इति चेन् सस्थापि व्यफिरूपा स्थिति: तत्स्वभावस्य वा क्रियते (अतत्स्वमायस्य वा)। न च ताबत, तरस्वभावस्य, यसर्थात् करण व्यापारम्य । नाप्यतत्स्वभावस्य, सपुष्पवत्करणानुत्पत्तः । कथमेवं उत्पत्ति-विनाशयोः कारणम् ? कस्यचित् तत्स्वभावस्वासस्वभास्य वा केनचित् तत्करणे स्थितिपक्षोक्तदोषानुषंगादिति चेत् । न, कथमपि सन्निश्चयनयात् सर्वस्य विस्रपोत्पाद-यय-धौव्यव्यवस्थितः। व्यवहारनयादव उत्पादादीनो सहसुकत्वातीतः ।
श्लोकवार्तिक ५, १६, पृ० ११अर्थ--इसलिये यह अच्छा कहा कि लोकाकारा और धादि द्रक्ष्योंका आधाराधेयभाव ब्यवहारनयसे जानना चाहिये, क्योंकि इसका बाधकप्रमाण नहीं है। निश्चयनयसे उनमें आधाराधेयभाव नहीं है, क्योंकि आकाशकी तरह धर्मादि द्रव्योंका भी स्वरूपमे अवस्थान है। तथा अन्य व्यकी अन्य द्रव्य में स्थिति मानने पर स्वरूपतंकरदोष प्राप्त होता है। स्वयं स्वरूपस्थित पदार्थका दूसरेसे स्थितिकरण होता है ऐसा मानना