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जयपुर (खानिया ) तश्वचर्चा निरर्थक है, क्योंकि स्वयं स्वरूप में अस्थित पदार्थका दूसरेके द्वारा स्थितिकरण ऐसे हो नहीं बनता जैसे शशविषाणका दूसरेके द्वारा स्थितिकरण नहीं बनता।
स्वयं शक्तिरूपसे स्थानशील पदार्थको अन्य पदार्थ व्यक्ति (प्रगद-पर्याय) रूप स्थिति करता है। यदि ऐसा * जाया है
पार्थ मायाले दूसरे पदार्थकी व्यक्तिरूप स्थिति करता है या अतत्स्वभाववाले पदार्थको । तत्स्वभाववालेकी तो कर नहीं सकता, क्यों कि ऐसा मानने पर करण-व्यापारकी भ्यर्थता होती है। अतत्स्वभाववालेकी भी नहीं कर सकता, क्यों कि आकाशकुसुम जैसे नहीं किया जा सकता उसी.प्रकार असत्स्वभाववाले पदार्थको स्थिति करना भी नहीं बनता । यदि ऐसा है तो दूसरा पदार्थ उत्पत्ति और विनाशका कारण कैसे होता है? क्योंकि तत्स्वभाववाले या अतत्स्वभावधाले किसी पदार्थका किसो दूसरेके द्वारा करना मानने पर स्थितिपक्षमें जो दोष दे आये है वे सत्र प्राप्त हो जायेंगे। नहीं, क्यों कि किसी भी प्रकारसे निश्वयनयको अपेक्षा विचार करने पर सम्पूर्ण पदार्थो का विस्तता उत्पाद, व्यय और घोपको व्यवस्था है। व्यवहारनयको अपेक्षासे विचार करने पर ही उत्पादादिफ सहेतुक प्रतीत होते है ।
इस प्रकार इन प्रमाणोंसे यह भलीभांति सिद्ध होता है कि एक द्रब्यकी विवक्षित पर्याय दूसरे द्रव्यको विवक्षित पर्यायमें अणुमात्र भी हेर-फेर नहीं कर सकती। केवल कार्यजननक्षम योग्यता तथा निमित्त-उपा. दानकी समस्याप्तिका ज्ञान न होने के कारण ही यह विकल्प होता है कि अमुकने अमुक किया, वह न होता तो वह कार्य हो उत्पन्न नहीं हो सकता था, किन्तु पूर्वोक्त उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि प्रत्येक कार्य अपनो उपादान शक्तिके बल पर ही होता है। इसी अर्थको स्पष्ट करते हुए षट्खण्डागम जीवस्थानचूलिका पृ० १६४ में भी कहा है--
कुदो ? पयष्टिविसेसाबो। ण च सम्वाइंकमाई एयंतेण वज्जात्थमवेक्सिय चे उप्पाजंति,सालिवीजादी जवंकुरस्स वि उप्पत्तिप्पसंगा । ण म तारिसाई सन्याई तिसु वि कालेसु कहिं वि अन्थि,बेसिं बक्षण सालिबीजस्स जवकुरुपायणसणी होज्ज, अणवस्थापसंगादो । तम्हा कम्हि वि अंतरंगकारणादो चेव काजुष्पगी होदि शि णिच्छओ काययो ।
___ अर्थ-क्योंकि प्रकृतिविशेष होनसे सूत्रोक्त इन प्रकृतिवांका यह स्थितिबन्य होता है। एकान्तसे बाह्य अर्थकी अपेक्षा करके नहीं उत्पन्न होते है, अन्यथा शालिधान्यके बीजसे जोके अंकुरकी भी उत्पत्तिका प्ररांग प्राप्त होगा। किन्तु उस प्रकारके दम तोनों ही कालोंमें किलो भी क्षेत्र में नहीं हैं कि जिनके बल से शालिधान्यके चीजको जोके अंकुररूपसे उत्पन्न करनेको शक्ति हो सके। यदि ऐसा होने लगे सो अनवस्था शेष प्राप्त होगा, इसलिपे कहीं पर भी अर्थात् सर्वत्र अन्तरंग कारणसे ही कार्यको उत्पत्ति होती हैं ऐसा निश्चय करना चाहिये।
यहाँ भिन्न टाईपके वाक्य ध्यान देने योग्य है । इस द्वारा दृढ़तापूर्वक आचार्य वीरसेनने यह स्पष्ट कर दिया है कि सर्वत्र कार्यको उत्पत्ति मात्र अन्तरंग कारण ही होती है। मात्र जिस अन्य द्रव्यकी वियनित पयार्यको उसके ( कार्यके ) साथ वाह्य व्याप्ति होती है उसमें निमित्तताका उपबहार किया जाता है।
इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य वोरसेन वंदनाभावविधानाद्यनुयोगद्वारों में कहते है
तस्थ वि पहाणमंतरगं कारणं, तम्हि उपकस्से संते बहिरंगकारणे थोवे वि बहुअणुभागवाददसणादो अंतरंगकारणे थोवे संत बहिरंगकारणे बहुए संते वि बहुअणुभागधादाणुषलंभादो।
-धवला पु. ११०३६