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________________ शंका ९ और उसका समाधान अ.-उसमें भी अन्तरंगकारण प्रधान है, क्योंकि उसके उत्कृष्ट होनेपर बहिरंग कारण स्तोक रहने पर भी बहत अनभागधात देखा जाता है। तथा अन्तरंग कारणके स्तोक होने पर बहिरंग बहुत होते हुए भी बहुत अनुभागपास नहीं उपलब्ध होता। यह जिनागमका तात्पर्य है, जिससे वस्तुस्वभाव पर सम्यक् प्रकाश पड़ता है। पूर्वमें प्रश्न नं० ६ एवं उसको प्रतिशंकाओं के उत्तर स्वरूप लिखे गये लेखोंमें हमने जिनागमके इसी तात्पर्यको ध्यान में रखकर नय और व्यवहारनयको अपेक्षा उसर दिया था। किन्तु हमें देखकर आश्चर्य हुआ कि निश्चयनय और व्यवहारनयको अपेक्षासे जिन्नागममें जो सम्यक व्यवस्था की गई है उसे गौण कर और व्यवहारमयके विषयको मुख्यकर (निश्चयरूप ) मानकर इस प्रतिशका द्वारा यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है कि कर्मोंने बलात जीवको बांध रखा है। अपने अभिप्रायकी पुष्टिमें अन्य व्यवहारनयके सूचक प्रमाणोंके साथ समयमारको 'सम्मतपडिणिबई' इत्यादि तोन गाथाएं उपस्थित कर उनमें आये हए "मिच्छत्त, अण्णाणं, और कसाय' पदोंका अर्थ प्रतिशंकामें मिथ्यात्व द्रव्यकर्म, मानावरणीय द्रव्यकम और चारित्रमोहनीय द्रव्यकर्म किया है किन्तु यहाँ पर इन पदोंका अर्थ मुख्यरूपसे मिथ्यात्वभाव, अशानभाव और कषायभाव लिये गये हैं। इनके निमित्तरूप कौका यदि ग्रहण हमा है तो गौणरूपसे हो । पण्डितप्रवर राजमलजीने इन तीन गाथाओंको टीकामें आये हुए 'सन्यस्तब्यमिदं समस्तमपि कम' (१०६) इम कलशका अर्थ करते हुए 'कर्म' शब्दका अर्थ मुख्यरूपसे जीवके भाव हो किया है। उसको टोकाका वचन इस प्रकार है ......"इसौ के जो कोई जीव तेने, तत् इदं कहतां सोई कर्म जो उपर ही कहयो थो, समस्तं अपि कहतां जावंत कै शुभ क्रियारूप अशुभ क्रियारूप अन्तर्जदपरूप बहिर्जल्परूप इस्यादि । करतूती रूप कर्म कहता क्रिया अथषा ज्ञानाचरणादि पुद्गलको पिंड अशुद्ध रागादि जीवके परिणाम इसौ कर्म...""-समयसास्कलश टीका पृ० १११ (सूरत वीर सं० २४५७) यद्यपि निमित्तोंका सम्यक् ज्ञान करानेके लिये आगममें कर्मोको मुख्यतासे व्यवहारनय प्रधान कथन बहुलतासे गया है इसमें सन्देह नहीं, परन्तु इस जीवफे संसारका कारण इसका अपना अपराध ही है ऐसा ज्ञान हए बिना उसकी अज्ञान, मोह राग, द्वेष अरुचि होकर स्वभावका पुरुषार्थ नहीं हो सकता, इसलिये प्रत्येक संसारी जीवको निमित्तोंके विकल्पसे निवृत्त होकर यही निर्णय करना कार्यकारी है यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तव । स्वयमयमपराधी तत्र सपत्यबोधो भवतु विदिसमस्तं यास्वबोधोऽस्मि बोधः ।।२२०॥ -समयसार कलश अर्थ-इस आत्मामें जो रागल्वेषरूप दोषोंको उत्पत्ति होती है उसमें परद्रव्यका कोई भी दोष नहीं है, वहां तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलता है-इस प्रकार विदित हो मोर अज्ञान अस्त हो जाये, में तो ज्ञान है। आगे चलकर इस प्रतियांका में अनेक प्रमाणोंसे यह सिद्ध किया गया है कि द्रव्यप्रतिझमण और तूपअप्रत्याख्यानका माग पहिले होता है। तथा भाव-अप्रतिक्रमण और भाव-अप्रत्याख्यानका त्याग बादमें होता
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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