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जयपुर ( खानिया तत्त्वचर्चा और जो व्यलिंगको मोक्षमार्ग कहते है उनके उस कथनको अजानका फल कहा है (गा० ४०६) । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि मोनमार्गकी प्ररूपणा दो प्रकार की है, मोनमार्ग दो नहीं है। ऐसी अवस्थामें पंचास्तिकायका हवाला देकर अपर पक्षका यह लिखना तो ठीक नहीं कि 'केवल निश्चयनयसे भी मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती और केवल व्यवहारनयसे भो मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती। किन्तु इसके स्थान में पह लिखना ही समोचीन है कि निश्चयारूद व्यक्तिके यथापदची व्यवहार नियमसे होता है । यही इन दोनोंका अविरोध है । किन्तु जैसे-जैसे स्वतत्त्व में विश्रान्ति प्रगाढ़ होती जाती है वैसे-वैसे क्रमशः कर्मका संन्यास होता जाता है और अन्तमें स्वतत्त्वमें परम विश्रान्ति होनेसे यह जीव आहेन्त्यलक्षण परम विभूतिका स्वामी बनता है । अपर पक्षने जी 'तदिदं वीतरागत्वं' इत्यादि वचन सद्धृत किया है उसका भी यही आशय है।
हमने लिखा था कि 'पर्यायबुद्धि तो अनादि कालसे बनाये चला आ रहा है।' उसका जो आशय अपर पक्षने लिया है वह ठीक नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्दने जिस अभिप्रायसे प्रवचनसार गा० ६३ में 'पाबमूहि परसमा मह वा लिखा है और जिस अभिप्रायसे उसकी टीकामें आचार्य अमृतबन्द्रने
'पती हि बहवोऽपि पर्यायमाश्रमेवाघलम्ब्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणं मोहमुपगरछन्तः परसमया भवन्ति ।'
जिससे कि बहुतसे जीव पर्यायभात्रका ही अवलम्बनकर तत्त्रको अप्रतिपत्तिलक्षण मोहको प्राप्त होते हुए परसमय होते है।
यह वचन लिखा है वही भाव हमारा था। यदि अपर पक्षनं इस वचन पर सम्यक् दृष्टिपात न किया हो तो अब कर ले । उमसे उस पक्षको व्यवहारनयके विषयभूत पर्यायका अवलम्बन करनेसे आत्माकी क्या हानि होती है यह अच्छी तरह समझ में आ जायगा और उससे मोक्षमार्ग में व्यबहारनयका विषयभूत अणुनतमहावतका पालना आश्रय करने योग्य क्यों नहीं बतलाया यह भी समझमें आ जायगा।
सम्भवतः अपर पक्षने 'प्रयोजन वान् है' और 'आश्रय करने योग्य है' इन पदोंके पृथक्-पृथक ाशयको ध्यानमें नहीं लिया तभी तो उस की ओर से यह वचन लिखा गया है--'जो एकान्तसे निश्चममयका बबलम्बन लेते है वें मोक्षको तो प्राप्त करते हो नहों, किन्तु उल्टा पापबन्ध ही करते हैं।' इसके लिए हम अपर पक्षका ध्यान समयसार कलश २३ की ओर बाकूष्ट कर देना चाहते हैं । उससे यह स्पष्ट हो जायगा कि यदि एक मुहर्त के लिये बुद्धि द्वारा यह जीव शरीरादि पर द्रव्य-परभावोंसे भिन्न होकर जायकस्वभाव आस्माका अनुभव कर ले तो उसके मोहके छेद होने में देर न लगे।
अन्न में अपर पक्षने अपनी कल्पनासे ऐसी बहतम्रो मान्यताओंका निर्देश किया है जिनका उसो स्तरसे उत्तर देना उचित प्रतीत नहीं होता । किन्तु इतना लिखे बिना नहीं रहा जाता कि अपर पक्षको स्वयं विचार करना चाहिए कि उनके सामने ऐसी कोई बाधा तो है जिससे समुचित बाह्य पुरुषार्थ करके भी और योग्य निमित्त मिलाने पर भी कार्यसिद्धि नहीं होती। स्पष्ट है कि काललब्धि नहीं आई । अन्य सब तथ्य इसी में निहित है। यदि अपर पक्ष अनेकान्तकी वास्तव में प्रतिष्ठा करना चाहता है तो उसे उत्पाद-यय-ध्रौव्य
रूप वस्तको प्रत्येक समय में स्वतःसिद्ध परनिरपेक्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। धर्म-धर्मीको सिद्धि में परस्पर सापेक्षताका व्यवहार किया जाय यह दूसरी बात है। वस्तुमें अनेकान्तकी प्रतिष्ठा इसी मार्गसे हो सकती है, अन्य मार्गसे नहीं ।
इस प्रकार समयसार गाथा २७२ का क्या आशय है इसके स्पष्टीकरणके साथ प्रकृत प्रश्नसम्बन्धी प्रस्तुत प्रतिशंकाका सांगोपांग विचार किया ।