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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा प्रकार प्रत्येक कार्यके स्वयंकृत सिद्ध होने पर उसमें अपने-अपने कार्योंकी अपेक्षा वास्तविक कारणधर्म और कर्ता आदि धौंको भी सिद्धि हो जाती है। प्रत्येक द्रव्यमें कर्ता आदि धर्म वास्तधिक है इसका स्पष्टीकरण करते हुए सर्वार्थसिद्धि ० १ सू०१ में लिखा है :
पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमानं वा दर्शनम् । जानाप्ति ज्ञायतेऽनेन ज्ञात्तिमात्र वा ज्ञानम् । चति घयतेऽनेन चरणमा वा चारित्रम् । नन्ने स एवं कर्ता स एव करणमित्यायातम्, सच विरुद्धम् ! सत्यम् , स्वपरिणाम-परिणामिनोमॅदष्विक्षायां सथामिधानात् । अथा ग्निदहतीन्धनं दाहपरिणामेन । उक्तः कादिसाधनभाव: पर्याय-पर्यायिणोरेकानेकरनं प्रत्यनेकान्तोपपत्ती स्वातन्त्र्य-पास्तन्न्यविवक्षोपपत्रेकस्मियीन मिनी सन्नी दिस्यिायाः कादिसाधनभाववत् ।
जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है या देखनामात्र दर्शन है। जो जानता है, जिसके द्वारा जाना जाता है या जाननामात्र ज्ञान है तथा जो आचरण करता है जिसके द्वारा आचरण किया जाता है या आचरण करनामात्र चारित्र है।
शंका-इस प्रकार यही कर्ती और वही करण यह प्राप्त हुआ और वह विरुद्ध है?
रामाधान-सत्य है । स्वपरिणाम और परिणामीको भेदविवक्षा में बैसा कथन किया गया है। जैसे अग्नि दाहपरिणामके द्वारा इंघनको जलाती है।
पर्याय और पर्यायी में एकत्व और अनेकत्वके प्रति अनेकान्त होनेपर स्वातन्त्र्य और पारतन्त्रय की विवक्षा की जानेसे एक ही अर्थमें कहा गया कर्ता आदि साधनभाष विरोधको प्राप्त नहीं होता। जैसे अग्निमें दहनादि क्रियाकी अपेक्षा कादि साधनभाव बन जाता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार गाया १६ में कहा है :
तह सो लद्धसहावी सचण्हू सबलोगपदिमाहिदो ।
भूदो सयमेवादा हवदि सयंभू ति णिहिलो ॥१६॥ इस प्रकार वह आत्मा स्वभावको प्राप्त सर्वज्ञ और सर्व लोकके अधिपतियोंहारा पूजित स्वयमेव होता हुआ स्वयंभू है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥१६॥
यद्यपि इस गाथामें मात्र एक निश्चय कर्ताका निर्देश है ऐसा प्रतीत होता है, परन्तु गाथामें आया हुआ 'स्वयमेव' पद निश्चयरूप छहों कारकोको सूचित करता है। यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र और आचार्य जयसेनने अपनी-अपनी टीकामें निश्चवरूप छही कारकोंका निर्देश दिया है। अपनी-अपनी टीकाके अन्तमें उक्त दोनों आचार्य क्रमशः लिखते है :
१. अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकत्वसम्बन्धोऽस्ति, अतः शुद्धात्मस्वभावहाभाय सामग्रीमार्गप्पच्यग्रतया परतन्त्रैर्भूयते ।।
१. इसलिए निश्वयसे परके साथ आत्माका कारकरूप सम्बन्ध नहीं है, जिससे कि शुद्धात्मस्वभावकी प्राप्तिके लिए सामग्री हूँढने की व्यग्रतासे जीत्र परतन्त्र होते हैं।
२. इत्यभेदषदकारकीरूपेण स्वतः एव परिणममाणः खनयमात्मा परमात्मस्वभाषकेवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्ताले यती भिन्नकारक नापेक्षते ततः स्वयंभूर्भवतीति भाषायः।
२. इस प्रकार अभेद षट्कारकरूपसे स्वतः ही परिणमन करता हुआ यह आत्मा परमात्मस्वभाव केवलज्ञानको उत्पत्तिके प्रस्ताव में यतः भिन्न कारककी अपेक्षा नहीं करता, अतः स्वयंभू होता है।