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शका ६ और उसका समाधान भावनासे रहित हुआ यह जीव अनुपचरिस असद्भुत व्यवहारकी अपेक्षा ज्ञानाबरणावि द्रव्यकर्मोंका आदि शब्दसे औदारिक, वैक्रियिक और आहारक तोन शरीर और आहार आदि छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गल पिण्डका नोकर्मोंका तथा उपचरित असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा बाह्म विषय घट-पट आदिका कर्ता होता है।
यही प्रश्न यह है कि जिसमें किसी दूसरी वस्तु या उसके गुण-धर्मका उपचार किया जाता है उसमें तदनुरूप कोई न कोई धर्म अवश्य होना चाहिए, अन्यथा उस वस्तुमें किसो दूसरी वस्तुका या उसके गुण-धर्मका उपचार करना नहीं बन सकता? उदाहरणार्म उसी बालकम सिंहका उपचार करके उसे सिंह कहा जा सकता है जिम बालक सिंहके समान किसी अंशमें क्रोर्य और शौर्य आदि गुण देखें जाते हैं। सो इसका समाधान यह है कि जिस वस्तु में निमित्त व्यवहार किया जाता है या निमित्त मानकर फर्ता आदि व्यवहार किया जाता है उस वस्तृमें स्वयं उपादान होकर किये गये अपने कार्यको अपेक्षा यथार्थ कारण धर्म भी पाया जाता है और यथार्थ का आदि धर्म भी पाये जाते हैं, इसलिए उसमें अन्य वस्तुके कार्यको अपेका कारण धर्म और कर्ता आदि धर्मोंका उपचार करने में कोई बाधा नहीं आती। यह वस्तुस्थिति है, इसको ध्यान रखकर हो प्रकृतम व्यवहारका क्या अर्थ है इसका निर्णय करना चाहिए। जिसका विशेष विचार हमने पूर्व किया ही है। -तत्त्वार्थवातिक अ० १ सू० ५ वार्तिक २५
२. सम्यक निश्चयनय और उसका विषय यह तो सम्यक् व्यवहाररूप अर्थ और उसे ग्रहण करनेवाले सम्यक् मयका खुलामा है। अब प्रकृतम निश्चयरूप अर्थ और उसको ग्रहण करनेवाले नयका खुलासा करते हैं
प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्यय-धौम्यस्वभाव होनेके कारण जसे स्वभावसे धोव्य है वैसे ही स्वभावसे उत्पाद-व्ययस्वभाववाली भी है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हए आप्तमीमांसा में स्वामी समन्तभद्र लिखते हैं
न सामान्यात्मनोदेति म व्येति व्यकमम्बयात् ।
म्येत्युदेति विशेषाचे सहकत्रोदयादि सत् ॥५७|| है भगवन ! आपके मतमें सत अपने सामान्य स्वभावकी अपेक्षा न तो उत्पन्न होता है और न अन्वय धमकी अपेक्षा व्ययको ही प्राप्त होता है। फिर भी उसका उत्पाद और व्यय होता है सो यह पर्याय की अपेक्षा हो जानना चाहिए, इसलिए सत् एक हो वस्तुमें उत्पादादि तीनहा है यह सिद्ध होता है।
इस प्रकार प्रत्येक वस्तुके स्वभावसे धौका होकर भी उत्पाद-ध्ययरूप सिद्ध होने पर यहां यह विचार करना है कि यह उत्पाद-व्यय स्वयंकृत है या परकृत है या उभयकृत है? परकृत तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि दोनोंकी एक सत्ता नहीं है । भिन्न सत्ता होकर भी उससे दूसरी वस्तु में परिणमनलप कार्य मानने पर परस्पर विरोध आता है, क्योंकि भिन्न सत्ता होने के कारण उससे भिन्न पर सत्तामें कार्यको किया जाना नहीं बन सकता और अपनेसे भिन्न पर ससामें कार्य करना स्वीकार करने पर दोनोंको भिन्न सत्ता नहीं बन सकती। यही कारण है कि आचार्योले सर्वत्र निश्चयसे एक द्रव्य या उसके गुणधर्मको दूसरे ठप या उसके गुणधर्मके कार्यका वास्तविक कर्ता स्वीकार नहीं किया है। दूसरे द्रश्यका वह उत्पाद-व्यय उभयकृत भी नहीं हो सकता, क्योंकि कोई भी कार्य जब परकृत नहीं सिद्ध होता, ऐसो अवस्थामें वह उभयकृत तो मिद्ध हो ही नहीं सकता। अतएव परमार्थसे प्रत्येक कार्य स्वयंकृत ही होता है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिये। इस