SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७२ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा मंगलं मंगलं भगवान् वीशे मंगलं गौतमो गणी । कुन्दकुन्दयों जैनधर्मोऽस्तु शंका १३ मंगलम् ॥ मूल प्रश्न १३ – पुण्यका फल जब अरहंत होना तक कहा गया है ( पुण्णकला अहंता प्र० सा० ) और जिससे यह आत्मा तीन लोकका अधिपति बनता है उसे सर्वातिशाली पुण्य बतलाया है, (सर्वातिशायि पुण्यं तत् त्रैलोक्याधिपतिश्वकृत् ) तत्र ऐसे पृष्यको होनोगमा देकर त्याज्य कहना और मानना क्या शास्त्रोक्त है ? प्रतिशंका ३ का समाधान १. सारांश हमने प्रथम उत्तर में वह स्पष्ट कर दिया था कि 'पुण्य और पाहन दानोका आस्त्र ओर बन्धनत्वमे अन्तर्भाव होता है ।' साथ ही यह भी बतला दिया था कि 'अशुभ कर्म का फल किमीको इष्ट नहीं हैं, इसलिए उसकी इच्छा तो किसीको नहीं होती । किन्तु पुण्यकर्म के फलका प्रलोभन छूटना बड़ा कठिन है, इसलिए प्रत्येक भव्यप्राणीकी मोक्षमार्ग में रुचि उत्पन्न हो और पुण्य अथा पुण्यके फळमें अटक न जाय इस अभिप्राय से सभी आचार्य उसकी विविध शब्दों द्वारा निन्दा करते आ रहे हैं । यह शास्रोत है।' अगर पक्षने अपनी प्रतिशंका २ में अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए लिखा है कि 'हमारा प्रश्न पुण्य आचरणके विषय में था । इसके बाद कुछ आगम प्रमाण देकर उसका समर्थन किया है । अपने दूसरे उत्तर में हमने उक्त प्रतिशंका पर सांगोपांग विचार कर अन्तमें अपर पक्षके शब्दोंको ध्यान में रख कर ही यह स्पष्ट कर दिया था कि 'जितना रागांश है उससे आस्रव बन्ध होता है और जितना शुद्धवंश है उससे संवर निर्जरा होती है।' उक्त प्रतिशंका में सारांश लिखते हुए इस तथ्यको अपर पक्षने गी स्वीकार कर लिया है । २. प्रतिशंका ३ के आधारसे विचार प्रतिशंका ३ को प्रारम्भ करते हुए अपर पलने लिखा है - "यह प्रश्न जोवके पुण्यभावकी अपेक्षासे इस बात को हमने अपने प्रपत्र में स्पष्ट भी कर दिया था तथा यह भी स्पष्ट कर दिया था कि शुभांपयोग, पुण्यभाव, व्यवहारधर्म एवं व्यवहारचारित्र ये एकार्थवाची शब्द है । फिर भी आपने पुण्वरूप द्रव्यकर्म करे अपेक्षासे ही उत्तर प्रारम्भ किया है।' समाधान यह है कि हमने जो उत्तर दिया है वह सबके सामने है, अतः उसमें तो हम नहीं जायेंगे । यहाँ मूल शंका और अपर पक्षके इस वक्तव्य पर अवश्य ही विचार करेंगे । अपर पक्षने यह प्रश्न प्रवचनसार गाथा ४५ ( पुष्णफला अरहंता ) के आधारसे निबद्ध किया या इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि मूल प्रश्न में हो अपर पक्षने इस गाथा के प्रथम पादका उल्लेख किया है 1 प्रवचनसारमें यह गाया क्यों लिखी गई है इसके लिए गाथा ४३-४४ के संदर्भ में इसके आशयको समझना होगा । गाथा ४३ में 'संसारी जीवोंके उदयगत कर्माश जिनवरने नियमसे कहे हैं। उनमें मोही, रागो और द्वेषी
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy